स्वामी विवेकानन्द के संकल्प दिवस 25 दिसम्बर पर विशेष 
संकल्प – भारत के उत्थान का
शिक्षा सत्र पूर्ण होने पर विश्वविद्यालय मे डिग्री बाँटने आये शिक्षाविद् ने विद्यार्थियो से पूछा कि अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वे क्या करने वा

ले हैं़? तो ज्यादातर ने ईच्छा जताई कि हम विदेश जाकर पैसा कमाना चाहते है। इस प्रकार की सोच केवल इस पढ़ी लिखी जमात की है ऐसा नही हैं, सामाजिक रचना मे ही यह सोच घर कर गयी है। माता-पिता का भी यही सोचना होता है, मेरा बेटा पढ़ लिख गया है उसे अब कहीं विदेश मे ‘‘सैटल’’ हो जाना चाहिए।


यह सोच समाज मे अचानक से आ गयी ऐसा नहीं है। इस सोच का जन्म हमारी एक हजार वर्ष की गुलामी है। जिसका प्रभाव आज भी हमारे जीवन मे उपरोक्त उदाहरण के साथ ऐसे अनेको उदाहरणो से मिलता है।
लॅार्ड मैकाले को हम भूले नहीं होंगे जिसकी बनायी शिक्षा पद्धति का हम आज भी अनुसरण कर रहे है। उसने 19वीं सदी के उतर्राद्ध मे भारत का भ्रमण किया था। जिसके बाद उसने अपने निष्कर्ष का एक पत्र ब्रिटिश संसद को 1835 मे लिखा था। जिसके अनुसार, ‘‘मैने पुरे भारत का भ्रमण किया। यहाँ घरों मे कहीं ताले नही लगाये जाते, कहीं भी चोरी-डकैती की खबर सुनने को नहीं मिली, सभी और शान्ति है। इसका कारण यहाँ के नैतिक और संास्कृतिक मुल्य है। यदि हमें इस देश पर लम्बे समय तक शासन करना है तो यहाँ के नैतिक और सांस्कृतिक मुल्यों मे गिरावट लानी होगी। इसके लिये हमे यहाँ की प्राचीन शिक्षा पद्धति को खत्म करके नयी शिक्षा पद्धति का विस्तार करना होगा।’’
और वह (मैकाले) इसमे सफल रहा। आज हम अपने ही पुर्वजों पर प्रश्न चिह्न खड़े करते है, अपने ही देवी देवताओं को अविश्वास की दृष्टि से देखते है, अपने सांस्कृतिक बिन्दुओं को अनदेखा कर दुसरों की सांस्कृतिक विरासतो को पूजते है।
इन सारी समस्यायों को समझा माँ काली के उपासक रामकृष्ण परमहंस ने। लेकिन उन्हें इन्तजार था ऐसे साधक का जो भारत को इन समस्यायों से लड़ने के लिये जागृत कर सके। ओर वह दिन आ गया जब एक बालक ने आकर उनसे पूछा, ‘‘क्या आपने माँ काली को साक्षात देखा है?’’ और उन्होने कह दिया, ‘‘ऐसे ही देखा है जैसे मै तुम्हे देख रहा हूँ’’ उस बालक ने कहा, ‘‘क्या मुझे मिलवायेंगे?’’ रामकृष्ण परमहंस ने कहा ‘‘हाँ’’।
यह वह क्षण था जिसमें उस बालक को भगवान से साक्षात्कार कराने वाला गुरू मिल गया और रामकृष्ण परमहंस को भारत का तारणहार।
इस बालक का नाम था ‘‘विरेश्वर’’ जिसे उसकी माँ भुवनेश्वरी देवी ‘‘विले’’ कहकर पुकारती थी और पिता विश्वनाथ जो पेशे से वकील थे उसे ‘‘नरेन्द्रनाथ’’ कहकर बुलाते थे। इसी ‘‘नरेन्द्रनाथ’’ नाम को समाज मे पहचान मिली।
गुरू शिष्य का यह सम्बन्ध सतत् बढ़ा। परिणाम दिखने लगे लेकिन परिवार का मोह छुट ही नही रहा था। इसी दशा मे एक दिन नरेन्द्र गुरू रामकृष्ण परमहंस के सामने परिवार की समस्याओं को लेकर पहुँचा। और गुरू ने कह दिया, ‘‘जा जो चाहिए माँ से माँग ले’’। मनोवृत्ति तो माँगने की नही थी लेकिन परिवार का मोह भी पीछा नहीं छोड़ रहा था। तीन बार ‘‘माँ’’ के सामने गये लेकिन माँग नहीं सके। अन्त मे गुरू के सामने समर्पण कर दिया, और रामकृष्ण ने जैसे ही सिर पर हाथ रखा मानो गजब हो गया, अपने दुःख से ज्यादा समाज मे फैला दुःख का संसार नजर आने लगा, परिवार भूल गये। परिणाम स्वरूप 12 जनवरी 1863 को जन्मा यह बालक स्वामी विवेकानन्द के रूप मे सारे देश के सामने प्रकट हुआ। गुरू ने भी भरोसा दिलाया, ‘‘माँ’’ रखेगी ख्याल तुम्हारे परिवार का।
स्वामी विवेकानन्द निकल पडे़ गुरू रामकृष्ण परमहंस के देखे हुये सपने को पुरा करने। पूरे देश का भ्रमण करते हुये दिसम्बर 1892 मे कन्याकुमारी पहुँचें। शाम का समय था समुद्र के किनारे टहल रहे थे। मन-मस्तिष्क मे पुरे भ्रमण काल का चित्र घुमड़-घुमड़ कर रहा था। कोई हल नजर नहीं आ रहा था। तभी निगाह पड़ी समुद्र के बीच मे देविपादम शिला पर। बस लगा कि वहाँ ध्यान लगाकर भविष्य की दिशा तय करनी चाहिये और तैरते हुये पहुँच गये उस शिला पर। यह घटना थी 25 दिसम्बर की। लगातार तीन दिन तक ध्यान मग्न रहे। ध्यान का केन्द्र बिन्दु था ‘‘भारत और केवल भारत’’। जब गुरू, रामकृष्ण परमहंस जैसा हो तो दिशा क्यों नहीं मिलेगी। गुरू की कृपा से भारत का भवित्तव्य और इसमे अपनी भूमिका का स्पष्ट दर्शन हुआ। ‘‘भारत माता की सेवा में ही मेरे जीवन का एक मात्र अवशिष्ठ कर्म होगा’’ यह संकल्प ले वे वहाँ से उठे। एक नवचेतना व दिशा लेकर वे वहाँ से भारत की मुख्य भूमि पर आये और उन्होने जो कार्य किया उसे समूचा देश और दुनिया जानती है।
स्वामी विवेकानन्द आज भी युवाओं के आदर्श है। युवाओं का बहुत बड़ा वर्ग आज भी उनसे पे्ररणा लेकर देश हित के कार्य मे लगा हुआ है। आज आवश्यकता है युवाओं की इस श्रंखला को बढ़ाने की। आओ हम सब मिलकर उनकी 150वीं जयंती पर संकल्प ले उनके कार्य को आगे बढ़ाने का।

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