RSS Press Release: November 07, 2013
नई दिल्ली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मानना है कि देश के खुदरा व्यापार क्षेत्र में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये।
सरसंघचालक श्री मोहन राव भागवत ने राजधानी में प्रबुद्ध और गणमान्य नागरिकों के साथ अपने विजयादशमी भाषण पर एक परिचर्चा के दौरान अनेक प्रश्नों के उत्तर दिये और विभिन्न मुद्दों पर संघ का दृष्टिकोण स्पष्ट किया। दिल्ली में ऐसी परिचर्चा के आयोजन की परंपरा पिछले वर्ष से ही आरम्भ हुई है। उन्होंने कहा कि संघ का सदैव से यही मत रहा है कि ऐसा जीवनावश्यक नया ज्ञान अथवा नई तकनीक जो हमारे पास नहीं है, उसे हम अपनी शर्तों पर अन्य देशों से ले सकते हैं।
श्री भागवत ने पूछा, “साबुन, तेल और सब्जी जैसी वस्तुओं के व्यापार की विदेशी कंपनियों को अनुमति देकर अपने खुदरा व्यापारियों को क्यों मारना चाहिये ?” उन्होंने कहा कि संघ का स्वदेशी पर आग्रह स्वावलंबन और अहिंसा को पुष्ट करने के लिये रहा है। मनुष्य की सच्ची स्वतंत्रता आत्मनिर्भरता है और उस पर अंकुश के लिये अहिंसा का स्वभाव बनना आवश्यक है। श्री भागवत ने कहा कि देश को संतुलित और युक्तिसंगत अर्थ नीति की आवश्यकता है, जिसमें आम नागरिकों के पास रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य, शिक्षा और अतिथि-सत्कार का सामर्थ्य हो और उन्हें आत्महत्या करने को विवश न होना पड़े। साथ ही, हमारे राष्ट्रीय मुद्रा कोष में भी कमी न आये।
पड़ोसी देशों विशेषत: पाकिस्तान के बारे में उन्होंने कहा कि हमें ऐसी व्यापक और दूरदृष्टि रखकर रणनीति बनानी होगी जिससे वह भारत पर तरह-तरह से आक्रमण करने का दुस्साहस ही न जुटा पाये, इसके लिये उसे समर्थन-विहीन करना एक परीक्षित उपाय है, क्योंकि वह सभी देशों से बैर मोल लेकर हम पर हमला नहीं कर सकता। उनके विचार में यह उचित नहीं है कि पाक लगातार हमले करता रहे और हम उससे बात करने की बात ही करते रहें। हमें निर्भय होकर समयानुकूल कदम उठाने होंगे। श्री भागवत ने देश को परमाणु शक्ति से संपन्न करने के विचार का समर्थन करते हुए कहा कि चीन की भांति भारत को भी अपने पड़ोसी देशों को नियंत्रित रखने की शक्ति का परिचय देना चाहिये।
सरसंघचालक के अनुसार संघ का दृढ़ विश्वास है कि देश में अनेक विचारधाराएं होने के बावजूद देशहित में सभी लोग एक साथ मिलकर काम कर सकते हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि संघ किसी मतवाद को न पकड़कर केवल सत्य जानने का प्रयास करता है। लेकिन प्राय: स्वार्थ और अहंकार के कारण जिन आग्रहों को छोड़ना चाहिये, उन्हें पकड़कर रखा जाता है और उचित आग्रहों का तिरस्कार कर दिया जाता है।
श्री भागवत ने एक प्रश्नकर्ता से अपनी असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि संघ की स्वीकार्यता और साख घट नहीं, बल्कि बढ़ रही है। उन्होंने राष्ट्रवाद को अप्रासंगिक बताने पर कहा कि यह समझने की आवश्यकता है कि अन्य देश वैश्वीकरण का मात्र नारा लगाकर अपने-अपने राष्ट्र का विकास कर रहे हैं। सरसंघचालक ने यह भी स्पष्ट किया कि वे फिलहाल संघ के आधारभूत दर्शन व दृष्टिकोण में किसी परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव नहीं करते। लेकिन जब भी ऐसा लगेगा कि इसमें परिवर्तन की आवश्यकता है तो परिवर्तन से कोई संकोच भी नहीं करेंगे। “ हमें किसी वाद से मतलब नहीं, हमें सत्य से मतलब है”। सरसंघचालक ने यह भी बताया कि संघ कार्य का निरंतर विस्तार हो रहा है। संघ की शाखाओं की संख्या और उन पर स्वयंसेवकों की उपस्थिति में भी लगातार वृद्धि हो रही है।
सरसंघचालक ने मूल्यपरक और व्यापारमुक्त शिक्षा पर जोर देते हुए कहा कि आमूलचूल परिवर्तन के बिना काम नहीं चलेगा। उन्होंने कहा कि हमें भारत में आने को उत्सुक उन विदेशी विश्वविद्यालयों को दूर रखना होगा जो केवल करोड़ों डॉलर के मुनाफे की बात सोचते हैं। सुसंस्कारी मनुष्य बनाने के लिये शिक्षा नीति की पुनर्रचना की आवश्यकता रेखांकित करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि शिक्षक अपने उदाहरण से संस्कार दे सकते हैं, लेकिन उनके भी प्रशिक्षण की जरूरत है, क्योंकि वे भी इसी शिक्षा पद्धति से तैयार हुये हैं। धन, यश, प्रतिष्ठा के बजाय परोपकार और समाजसेवा जैसे आदर्श जीवन-मूल्यों को अपने आचरण में लाना होगा। इसकी शुरुआत घर से करने के लिये संघ ने कुटुम्ब प्रबोधन कार्यक्रम आरम्भ किया है। उन्होंने कहा कि दीर्घावधिकाल में हुए जीवन-मूल्यों के क्षरण को अल्पावधि में ठीक नहीं किया जा सकता। लेकिन उन्होंने आश्वस्त किया कि परिस्थिति इतनी गंभीर नहीं है कि इसमें सुधार नहीं होगा। “केवल जल, जंगल, जमीन, जानवर और स्वसंस्कृति से अपनत्व और कर्तव्य बोध को जगाने भर का काम करना है”। अगले 25 वर्ष को उन्होंने राष्ट्र के सुंदर चित्र का निर्माणकाल बताते हुए कहा कि संघ स्वार्थ और भेदों से दूर रहकर प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने कर्तव्य पर डटे रहने वाले देशभक्त तैयार करने में जुटा है।
श्री भागवत ने सभी पर समान रूप से लागू होने वाली जनसंख्या नीति का समर्थन करते हुए कहा कि यह देश की आवश्यकता है। उन्होंने एक अन्य प्रसंग में कहा कि देश में वास्तव में संख्या और नस्ल, दोनों ही दृष्टि से कोई अल्पसंख्यक नहीं है। उन्होंने कहा कि यह तुष्टिकरण की नीति का कुपरिणाम है।
महिला सशक्तीकरण से जुड़े प्रश्नों के उत्तर में श्री भागवत ने स्पष्ट किया कि संघ महिला सशक्तीकरण का पूरी तरह पक्षधर है। “हमारा महिलाओं के बारे में जो दृष्टिकोण है, वास्तव में वह शास्त्र शुद्ध और सबके कल्याण का दृष्टिकोण है”। उन्होंने कहा कि दोनों में न कोई छोटा है और न बड़ा, दोनों को मिलाकर जीवन बनता है, चाहे राष्ट्र-जीवन हो या पारिवारिक जीवन, दोनों की समान भागीदारी है। अपने विजयादशमी उद्बबोधन का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि महिलाओं को सशक्त, जाग्रत और प्रबुद्ध होना चाहिये। यदि वे सक्रिय होना चाहतीं हैं तो सक्रिय होने की प्रेरणा देकर वैसी स्वतंत्रता उन्हें देनी चाहिये। सरसंघचालक ने कहा कि महिलाओं को नि:शुल्क शिक्षा उपलब्ध करायी जानी चाहिये। उन्होंने यह भी कहा, “प्राकृतिक भेद के सिवाय बहुत थोड़े काम ऐसे हैं, जो पुरुष कर सकता है उन्हें महिला नहीं कर सकती। मैं तो कहूंगा बहुत सी ऐसी बातें या कार्य जो महिला नहीं कर सकती, उनसे कहीं ज्यादा कार्य हैं, जो महिला ही कर सकती है, उन्हें पुरुष नहीं कर सकते। इसलिए उन पर कोई रोक-टोक, बन्धन न हो”।