राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहसरकार्यवाह श्री सुरेश सोनी ने कार्यक्रम में आए बुद्धिजीवियों को सम्बोधित करते हुए कहा कि तीन नाम ध्यान में आते हैं. पहला बाबा साहेब आपटे, दूसरा डा विष्णु वाकणकर, तीसरा जिनको आज सम्मानित किया गया. बाबा साहेब आपटे के 2 आशय थे ‘संस्कृत और इतिहास’. उनका मानना था कि संस्कृत विद्वानों की भाषा न होकर जनमानस की भाषा होनी चाहिए. उन्होंने बताया कि इतिहास अगर विकृत होता है तो भविष्य भी विकृत होगा और सही इतिहास को सामने लाने का प्रयत्न करना चाहिए. वाकणकरजी पुरातत्ववेत्ता थे, बाबा साहेब आपटे ने उनको सम्मानित किया था,आपटेजी ने तब कहा था जिनको हम सम्मानित कर रहे है वो ‘वाक’ यानि बोलता है, ‘कण’ यानि कणों के साथ, ‘कर’ यानि करता है, यानि यह कणों के साथ बातें करता है, जिसके साथ पत्थर भी बोलता है, पत्थर बताता है अपना परिचय कि मेरा क्या इतिहास है. वह संघ के स्वयंसेवक थे इसलिए हमेशा संघ की काली टोपी पहनते थे, पद्मश्री पुरस्कार समारोह में जब उन्होंने काली टोपी पहनने की बात की तो लोगों ने उन्हें टोका कि प्रोटोकाल के तहत ये टोपी नहीं पहन सकते तो उन्होंने कहा था कि मुझे यह सम्मान नहीं चाहिए. उन्हें अंतराष्ट्रीय ख्याति विश्व के सबसे प्राचीन शैल चित्रों की खोज के कारण मिली. नागपुर जाते समय पहाड़ों के बीच गुफाओं में उन्हें एक साधु मिला, अपनी सहज पुरातात्विक वृति के कारण वह साधु से उन्होंने पूछा यहां क्या है, तो साधु ने बताया कि यहां चित्र हैं. साधु के कहने पर वाकणकर ने उन पर पानी के छीटे मारे तो चित्र उभरकर सामने आने लगे, वो उन्हें सहेज कर सामने लाए, आगे चलकर वह एक अन्तराष्ट्रीय ख्याति का स्थान बना.
बाबा साहेब आपटे के विचार था कि इतिहास का संकलन होना चाहिए, पुर्नलेखन तभी सम्भव होगा यह बात श्री सुरेश सोनी ने व्यक्त की. उन्होंने कहा कि अभी तक इतिहास का स्रोत केवल आर्केलॉजी है लेकिन केवल आर्केलॉजी ही माध्यम रहे इससे काम नहीं चल सकता, और भी माध्यम हो सकते हैं. भूगर्भशास्त्र भी माध्यम हो सकता है. सरस्वती नदी जो लुप्त हो गई है वह कितनी पुरानी थी, कहां बहती थी इसमें भूगर्भ का भी योगदान है. इतिहास संकलन में खगोलशास्त्र का भी अपना योगदान है. इसलिए इतिहास का विचार करते समय यह बात सामने आई के इतिहास संकलन में केवल आर्केलाजी ही माध्यम न रहे, इसके साथ ऐस्ट्रानोमी, जियोलाजी और जो वांगमय है, केवल लिटरेचर ही पर्याप्त नहीं है जैसे प्राचीन लोककथाएं हैं सरस्वती नदी के बारे में कि शिवालिक पहाडि़यों से निकलकर और जहां वह विलुप्त होती है, जिन-जिन गांवों से होकर निकलती है वहां उससे जुड़ी कथाएं प्रचलित हैं. जैसे महाभारत में बलराम का सरस्वती प्रक्रिमा का प्रसंग. इसलिए इस प्रकार के सभी सूत्रों को लेकर भारतीय इतिहास का एक आधार बनाना चाहिए, इन सबको मिलाकर इतिहास का संकलन किया जाए और इस आधार पर इतिहास पुर्नलेखन किया जाना चाहिए. इसी कल्पना से बाबा साहेब आपटे की प्रेरणा रही, वाकणकरजी का परिश्रम रहा और इसी में से बाद में बाबा साहेब के जाने के बाद बाबा साहेब आपटे समिति बनी, इतिहास की दृष्टि से इतिहास संकलन योजना का कार्य प्रारम्भ हुआ और आज उसका बड़ा व्यापक स्वरूप बना है.
अभी चार-पांच साल पहले जिनको नोबेल पुरस्कार मिला वी.एस.नागपाल, वे दक्षिण पूर्व एशिया का भ्रमण करके भारत आए थे उन्होंने भी कहा कि दुनिया आज उस भारत को जानती है जो पिछले 200 सालों में लिखा गया. उसके आधार पर भारत को समझती है. वो सब गलत मानसिकता से खराब लिखा गया है. लेकिन जो पिछले 2000 साल में लिखा गया है वह बहुत अच्छा है. वो भारत के ही लोगों ने ही नहीं लिखा बाहर के लोगों ने भी 2000 सालों से ही लिखा है. उन सबको इकट्ठा करके समाज के सामने लाना चाहिए. जैसे जैसे समय बीतेगा सत्य सामने आएगा.
विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यताओं जैसे सुमेरियन, मेसोपाटामिया की जीवन कल्पनाएं, सिद्वान्त भारत की ओर ध्यान केन्द्रित करती हैं. सुमेरिया के लोग चाहते थे अमर देश जाना, कहां है, जहां बर्फ के पहाड़ हैं, उससे कई नदियां निकलती हैं, देवदार के वृक्ष हैं, बर्फ का पहाड़ तो हिमालय है, वहां से कई नदियां निकलती हैं, देवदार के वृक्ष हैं, मयूर के पंख हैं. ऐसे एक-एक कल्पनाएं उन्होंने की थी जो भारत में ही विद्यमान थी. जो हम कहते हैं एक समय भारतीय संस्कृति सारे विश्व में थी यह केवल एक अंहकार मात्र नहीं है, यह अतीत की एक सच्चाई है. अफ्रीका के देशों के कबीलों में जब कोई कार्य आरम्भ होता है तो उनकी परम्पराएं भी भारतीय परम्पराओं से मिलती हैं. श्री सोनी ने कहा कि बाबा साहेब आपटे की इच्छा थी कि इन मिसिंग लिंक को खोजने की आवश्कता है. जितने अधिक मिसिंग लिंक खोजते जाएंगे उतने सूत्र जुड़ते जाएंगे और जितने सूत्र जुड़ते जाएंगे उतना वास्तविक इतिहास का चित्र अधिकाधिक हमारे सामने उभरकर आता जाएगा. उन्होंने चिंता प्रकट करते हुए कहा कि भारत का इतिहास वे लोग लिख रहे हैं जिन्होंने कभी भारत देखा नहीं, वहां की भाषा पढ़ी नहीं, न ही वहां की प्राचीन पुस्तकें पढ़ीं और भारत में भी लोग उनके लिखे इतिहास को सही मान रहे हैं.
अभी तक जो विकृति हुई वह क्यों हुई उसको समझना जरूरी है, लेकिन उससे अधिक उसको ठीक करने के लिए करना क्या है, वो अधिक करने की आवश्कता है. आज जो लोग लिख रहे हैं उसकी आलोचना करने के बजाय हमें अपना सांस्कृतिक प्रत्याक्रमण करना चाहिए, ऐसा महर्षि अरविंद का कहना था. दुनिया का जो भविष्य होगा वो हमारी आज की गतिविधियों की वजह से होगा. भारत की सही छवि, सही बात दुनिया के सामने लाने की आवश्कता है इसको करने के लिए मन में एक आत्मविष्वास लाना चाहिए. स्वामी विवेकानन्द को इसके लिए श्री सुरेश सोनी ने आदर्ष माना, उन्होने बताया कि विवेकानन्द जिस समय शिकागो गए उस समय देश गुलाम था, विज्ञान प्रगति, औद्योगिक तरक्की के कारण पष्चिम का सीना फूला हुआ था, ऐसे में विवेकानन्द ने उनकी एक-एक कमियों को ताकत के साथ सामने रखा, चार साल तक वहां घूमने के बाद जब वे भारत वापसी के लिए इंग्लैंड गए तो वहां उनके बहुत शिष्य बन गए. जब वे स्वामीजी को जहाज पर छोड़ने आए तो उनके एक मित्र ने कहा बड़े गर्व के साथ कहा sकि स्वामीजी ये चार साल आप वैस्ट में रहे तो कैसा लगा आपको. इसके लिए उसने तीन शब्द प्रयोग किए कहा कि ‘ग्लोरियस, लक्जीरिय एण्ड पावरफुल वैस्ट’ के अनुभव के बाद आपको अपना देश अब कैसा लगेगा. स्वामीजी ने तुरन्त कहा कि जब मैं यहां आया तो मैं अपने देश से प्रेम करता था, लेकिन यहां से जाने के बाद उस देश का एक-एक कण मेरे लिए पवित्र है, उसके पानी की एक-एक बूंद मेरे लिए पवित्र है, उसकी हवा का एक एक-एक झोंका मेरे लिए पवित्र है, वो मेरे लिए तीर्थ स्थान है. यह केवल उन्होंने बोला ही नहीं भारत भूमि में उतरते ही वह धूल में लोटने लगे. तो लोगों ने कहा कि इतना विश्व विख्यात आदमी, यह क्या हो गया है, तो उन्होंने कहा कि इतने दिन में भोगवाद की दुनिया में रहा, उनके कुसंस्कार मुझ में पड़ गए होंगे, उसको दूर करने के लिए मैं अपने ऊपर थोड़ी सी पवित्र मिट्टी डाल रहा हूं. उन्होंने विश्व में जहां भी भारत के बारे में कहा पूरी ताकत के साथ कहा, जब उन्हें इंग्लैंड में बार-बार टोका गया कि भारत ने क्या किया है तो उन्होंने उलटा उनसे पूछा कि तुम कौन थे, तुम्हारा इतिहास क्या था, तुम यूरोप के लोगों ने जानवरों की तरह पूरी दुनिया का सफाया करके तुम आज बसे हुए हो, तुम्हारे संग्रहालय लूट के माल से भरे हैं. इंग्लैंड का म्यूजियम देखिए उसमें इंग्लैंड का क्या है, सब कुछ दिखाई देता है कुछ यहां भारत से लूटा कुछ कहीं और सेे लूटा, इसमें तुम्हारा क्या है, तम्हारा इतिहास क्या है.
श्री सोनी ने कहा कि यह मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि कभी कभी अपना आदमी अपने को ही तुच्छ या दुनिया के सामने कम समझने लगता है, हां अपने अंदर अगर कोई कमी है तो यह नहीं होनी चाहिए, इस नाते आने समय में इस वैचारिक क्षेत्र में आवश्कता इस बात की है कि भारत के इस सही इतिहास को सही स्वरूप को सामने लाने के नाते से हम सब बन्धु चिंतन करें.
कार्यक्रम में अध्यक्ष के नाते आमंत्रित डॉ. वेद प्रताप वैदिक ने अपने उदबोधन में कहा कि पश्चिमी विद्वानो सारे उधार के स्रोतों के आधार पर भारतीय इतिहास लिख दिया, क्योंकि उसको चुनौती देने वाला कोई नहीं था. जब किसी ने भारत का इतिहास प्रमाणिक लिखा तो उसे गिराना शुरू कर दिया. उन्होंने क्या लिखा कि 1857 का जो स्वतन्त्रता संग्राम हुआ उसको उन्होंने लिख दिया गदर, क्या उस समय हमारी अपनी सरकार चल रही थी, जिसके खिलाफ कोई विद्रोह किया गया. अंग्रेज़ के खिलाफ बगावत थी उसको उन्होंने गदर कह दिया, क्या हम भी उसको गदर कहेंगे. वीर सावरकर ने सबसे पहले इसको स्वतन्त्रता संग्राम कहा था, उन्होंने ब्रिटिश म्यूजियम में दस्तावेजों के आधार पर स्वतन्त्रता संग्राम कहा था. इस तरह दस्तावेजो के आधार पर अपनी बात कहने वालों को ब्रिटिषों ने प्रतिबंधित कर दिया उनको विद्वान मानने से ही इंकार कर दिया. स्वामी श्रद्धानन्द ने गुरुकुल कांगड़ी में पहली बार भारत का युद्ध इतिहास लिखना प्रारम्भ किया, जयचंद विद्यासागर की पुस्तक लिखी, आचार्य भगवत दत्त की पुस्तक लिखी. उन्होंने बताया कि दुर्भाग्य से आजादी के भी भारतीय इतिहास को पश्चिमी दृष्टि से लिखना जारी रखा, सरकारी संरक्षण के स्वार्थ के चलते कुछ विद्वान तथ्यों से आंखे मूंदे रहे. इसका दुष्परिणाम हम आज भुगत रहे हैं. आज आवश्कता सही इतिहास लिखने की है क्योंकि उसी पर हमारा वर्तमान और भविष्य टिका है