प्रभाकर केलकर (Prabhakar Kelkar, Organising Seceretary Bharatiya Kisan Sangh)
वर्तमान में जी.एम. बीजों से फसल उत्पादन की अनुमति एवं रोक इस विषय पर देश में चर्चा जोरों पर चल रही है। पत्रिका के माध्यम से किसान भाइयों एवं जन-सामान्य को इस तकनीकी विषय को समझने के लिए यह जानकारी लेख के रूप में दी जा रही है।
जी.एम. क्या है एवं किसे कहते हैं?
अंग्रेजी में इसे जेनेटिकली मोडिफाईड (genetically modified) कहते हैं। इसका हिन्दी में नाम जैव रूपांतरित बीज (फसल) ऐसा किया जाता है। जिसका अर्थ है-एक जीव या अन्य फसल का वंशाणु (जीन) दूसरे जैव-पौधे में रोपित किए जाते हैं, जिससे उसकी बीमारियों को रोकने की क्षमता बढ़ जाती है। उदाहरण के लिए टमाटर को पाले से या अधिक ठंड से बचाने के लिए बर्फीले क्षेत्र में पाए जाने वाली मछली के वंशाणु (जीन) को टमाटर के बीज में प्रत्यारोपित किया जाता हैं या मिलाया जाता हैं। बी.टी. कपास में डोडा कीट को मारने में सक्षम विषाणु वैक्टीरिया-बेसिलस थोरेजिंसस के वंशाणु (जीन) को मिलाया जाता है।
क्या ऐसे प्रयोगों की आवश्यकता है?
हम यह जानते हैं कि प्रकृति में पराग कण एक-दूसरे पौधों में संक्रमित (निशेचन) होकर नए पौधे या फल-फूल पैदा होते रहते हैं। लेकिन यह प्रकृति व्यवस्था में एक जैव एवं सामान्य प्रक्रिया है। उसमें विषाणु या अन्य घातक परिवर्तन होने की संभावना न के बराबर होती है और उसे हम खाने के बाद तय करते हैं कि आगे खाना है या नहीं।
इसलिए मानव द्वारा प्रयोगशालाओं में निर्मित फसलों के बारे में अधिक सावधानी रखने की आवश्यकता है।
(i) जैव रूपांतरित फसलों के निर्माता वैज्ञानिकों एवं उनका व्यापार करने वाली ट.ठ.उ.र बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कहना है कि इससे उत्पादन बढ़ता है। यह झूठा प्रचार है। इन फसलों से फसल में दाने या फलियां नहीं बढ़ती केवल रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है वह भी किसी एक निश्चित बीमारी से। जबकि फसलों पर अनेक प्रकार के कीट हमले होते हैं।
(ii) खेतों में परीक्षण क्यों? (फील्ड ट्रायल के खतरे)
पौधों का विकास देखने के लिए (1) पौधा फसल या फल-जहरीला तो नहीं हो गया है। जैसे सरसों की फसल या उत्पादित सरसों जहरीली हो सकती है। (2)फसल का पर्यावरण पर कृषि मित्र कीटों पर अन्य जीवों पर भी असर पड़ता है क्या। उदाहरण के लिए अमेरिका में जीन परिवर्तित मक्के की खेती को एक प्रतिशत खेत में परीक्षण अनुमति दी गई, लेकिन वह मधुमक्खियों एवं हवा आदि से 50% फैल गई। अब उसको वापस लाने या रोकने का कोई तरीका नहीं था।
इसी प्रकार इंग्लैंड में सरसों के बीज से परागकण-आसपास के दो सौ गज से ज्यादा क्षेत्र में फैल गए। व अन्य पौधों में भी वंशाणु के अंश पाए गए। साथ ही साथ खर-पतवार एवं जंगली घास में वह कीटरोधक फैल गया। जिसके कारण उन पर कीटनाशक दवाओं का असर समाप्त हो गया। वैज्ञानिकों के अनुसार गाजर (कांगे्रस) घास जैसा सुपर वीड़ पैदा हो सकता है-जिसे नियंत्रित नहीं किया जा सकता। आसपास के जंगली बीजों की पैदावार कम हो गई, जिससे मधुमक्खियों चिड़ियों-तितलियों आदि के लिए भोजन की समस्या पैदा हो गई। जी.एम. यानि एक प्रकार की फसल उससे देश की अथाह जैव विविधता समाप्त होने का खतरा पैदा हो जाएगा।
संक्रमण से बचने के उपाय : बहुराष्ट्रीय कंपनियां एवं वैज्ञानिक संक्रमण से बचने के लिए टर्मिनेटर बीज देने का प्रावधान बताते हैं। टर्मिनेटर बीज बांझ बीज है-जो दोबारा नहीं उगता या अन्य पौधों में संक्रमित नहीं होता। ऐसे बीजों के प्रयोग से किसानों का बीज रखने का अधिकार अपने आप समाप्त हो जाएगा। क्या भारत इसे स्वीकार करेगा-कभी नहीं, कभी नहीं। इन जी.एम. संवद्र्धित एवं बांझ बीजों के प्रयोग से भारत का बीजों पर से अधिकार समाप्त होगा यानि आगे चलकर देश की संप्रभुता खतरे में पड़ जाएगी। जैसे-अमेरिका के किसान बीजों के लिए पूरी तरह मोंसेण्टों कंपनी पर निर्भर होकर असहाय हो गए हैं।
उपाय क्या है? उपाय यह है कि ऐसे प्रयोग कांच या पी.वी.सी. के ग्रीन हाउस में किए जाने चाहिए। ऐसा करने में वर्षों लगते हैं दूसरा व्यय भी अधिक होता है। इसलिए व्यावसायिक कंपनियां इसके खेतों में ही परीक्षण की मांग करती है। जबकि यह मानव स्वास्थ्य से जुड़ा मुद्दा है। इस पर पर्याप्त सावधानी बरतने की आवश्यकता है।
कंपनियों को इतनी जल्दबाजी क्यों हैं?
देश का कृषि बाजार 60 लाख करोड़ का है। इस पर कब्जा लेने के लिए देश में अनेक प्रकार के षड्यंत्र चल रहे हैं। उसका एक हिस्सा यह भी है। चुनाव से3 माह पूर्व फरवरी में किस जल्दबाजी में तत्कालीन मंत्री श्री वीरप्पा मोइली ने 200 फसलों को अनुमति क्यों दी, यह समझ से परे है जबकि उनके पूर्ववर्ती मंत्री जयराम रमेश एवं जयंती नटराजन ने इसकी अनुमति नहीं दी थी। वर्तमान सरकार की जेनेटिकली इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी (जी.ई.ए.सी.) ने 15फसलों के ख्ोतों में परीक्षण की अनुमति दी है। हमारा आग्रह है कि सरकार मानव स्वास्थ्य के प्रति इस अति संवेदनशील मुद्दे पर सावधानीपूर्वक निर्णय लें। यदि मनुष्य स्वास्थ्य एवं पर्यावरण शुद्धता के लिए 10 वर्ष भी और ठहरना पड़े तो हमें तैयार रहना चाहिए। जहां तक खाद्यान्न की कमी का सवाल है?आज भारत में अनाज की कमी नहीं है। उसके व्यवस्था एवं प्रबंधन को ठीक करना चाहिए, अनाज के भंडार पर्याप्त है। आपकी जिम्मेदारी है कि उसे प्रत्येक भूखे व्यक्ति तक ठीक से पहुंचाएं।
इन प्रयोगों के बारे में कुछ अनुभव नीचे लिखे हैं इन्हें अवश्य पढ़ें :-
1. चूहों में आंत्रक्षति, बी.टी. मक्का से सूअरों व गायों में वन्ध्यापन, आर.आर. सोयाबीन से चूहों, खरगोशों आदि के यकृत, अग्न्शाय आदि पर दुष्प्रभाव आदि के अनेक मामले प्रायोगिक परीक्षणों के सामने आए हैं। जी.एम. फसलों से व्यक्ति में एंटीबायोटिक दवाओं के विरुद्ध प्रतिरोध उपजना, कोशिका चयापचय (सेल मेटाबालिज्म) पर प्रतिकूल प्रभाव आदि जैसी अनेक जटिलताओं के भी कई शोध परिणाम सामने आए हैं। बी.टी. कपास की चराई के बाद कुछ भेड़ों के मरने आदि के भी समाचार आते रहे हैं।
2. यहां पर यह भी उल्लेखनीय है कि एवेण्टिस कंपनी की स्टार लिंक नामक जी. एम. मक्का खाने से जापान व कोरिया में एलर्जी की समस्या उत्पन्न हुई थी। उसी मक्का को अमेरिका में एक खाद्य उत्पादक को बेच देने के एक ही मामले में एवेण्टिस को छ: करोड़ डालर (आज की विनिमय दर पर लगभग रु.400 करोड़ तुल्य) की क्षतिपूर्ति का भुगतान सन् 2000 में करना पड़ा था। अब जी. एम. मक्का को पशुओं को ही खिलाया जाता है। लेकिन, उनका दूध भी निरापद नहीं है।
3. विश्व में अभी केवल 27 देशों में जी.एम. फसलों की खेती हो रही है। इनमें 19 विकासशील देश है। जी.एम. फसलों की खेती की अनुमति केवल 8विकसित देशों में ही हैं। उनमें भी सुरक्षात्मक प्रावधान पर्याप्त प्रभावी हैं और इन जी. एम. फसलों का भंडारण आदि बिल्कुल अलग होता है। वैसे वह भी निरापद नहीं है। यूरोप में स्पेन, पुर्तगाल, रोमानिया व स्लोवाकिया में ही इनकी अनुमति हैं।
4. पूर्व में बीजों पर किसी प्रकार के पेटेंट किए जाने का प्रावधान नहीं था। अब विश्व व्यापार संगठन के नए विधान में एक सूक्ष्मजीवियों के पेटेंट किए जाने का प्रावधान हैं। दूसरा जीव या वंशाणुओं को भी अब नए विधान में सूक्ष्मजीवी मान लिया है। अर्थात 2005 से अब ऐसे नए जी. एम. पेटेंट कर इनकी विकासकर्ता कंपनी अपना एकाधिकार कर लेती है। अब विदेशी कंपनियों के इन जी. एम. बीजों पर पेटेंट के कारण जो एकाधिकार होगा, उससे इन बीजों पर इनका एकाधिकार भी होगा।
5. वस्तुत: बी.टी. कपास में प्रविष्ट कराई गई बाहरी जीन के बारे में वैज्ञानिकों का कथन है कि यह क्षय रोग निवारण की प्रचलित व सुलभता से उपलब्ध दवा स्ट्रेप्टोमाइसीन को प्रभावहीन कर देती हैं। भारत में गांवों में क्षय रोग का प्रकोप सर्वाधिक है। इस बी.टी. कपास के संसर्ग में रहने वाले कृषकों व कृषि श्रमिकों में यदि क्षय रोग निवारण की यह दवाई प्रभावहीन हो जाएगी तब क्या क्षय रोग असाध्य महामारी नहीं बन जाएगा?
6. बी.टी. कपास के विरुद्ध यदि डोडा कृषि में प्रतिरोध विकसित हो जाएगा, जिसकी पर्याप्त संभावना रहती है, तो मोन्सोण्टो के पास उसके प्रबंध की क्या योजना है? अमेरिका आदि कोई भी विकसित देश कृषि में ऐसी प्रतिरोध उत्पन्न होने की संभावना के विरुद्ध समुचित प्रबंध योजना को जाने बिना ऐसे प्रयोगों की अनुमति नहीं देता है। तब फिर हम क्यों ऐसा कर रहे हैं? एशिया और अफ्रीकी महाद्वीप में तो खासतौर पर यही कहा जाता है कि जेनेटिक इंजीनिर्यंरग से पैदा हुई फसलें ही बढ़ती जनसंख्या का पेट भरने का एकमात्र रास्ता हैं। नई प्रौद्योगिकी को लेकर कृषि जैव आतंकवाद से लेकर बांझ बीजों के चलन आदि की भी कई समस्याएं भी उलझने बढ़ाने वाली ही हैं।
7. बायो ईंधन की फसलों का उत्पादन केवल बायो ईंधन के लिए होता है न कि खाद्यान्न के लिए वहीं मोनसेण्टो कंपनी बायो ईंधन फसलों के लिए लॉबिंग करने वाली कंपनियों में केंद्र बिंदु बनी हुई है। जिसके चलते खाद्यान्न संकट को बढ़ावा मिल रहा है और यही खाद्यान्न संकट जी.एम. फसलों के उत्पादन को बढ़ावा देने का पक्ष मजबूत करता है।
8. अभी हाल ही में चूहों पर किए गए अनुसंधान के अनुसार जी.एम. फूड के उपयोग से चार महीनों पश्चात् चूहों में प्रभाव दिखाई देता है। जिसके चलते उनमें कई प्रकार के ट्यूमर विकसित हो जाते हैं अत: यह कहना उचित होगा कि केवल मात्र नब्बे दिन की छोटी सी समयावधि के आधार पर जी.एम. फसलों को खाने के लिए सुरक्षित घोषित नहीं किया जा सकता है।