इस वर्ग के समापन कार्यक्रम को हम लोग प्रतिवर्ष देखते ही हैं। इस बार विशेष योग बना है। आज पांचवें गुरु महाराज सद्गुरु श्री अर्जुन देव जी महाराज का शहीदी दिवस है। लाहौर में उनको बहुत प्रताड़नाएं, कष्ट देकर शहीद किया गया। धर्म के लिए वो हंसते-हंसते शहीद हो गए। कल महाराणा प्रताप की जयंती थी और भगवान बिरसा मुंडा का निर्वाण दिन भी था। महापुरुषों के इन स्मरण दिनों पर यहां देश हित में अपने आप को योग्य बनाने की साधना करने वालों का उपक्रम देखना और उनके साथ कुछ राष्ट्र के विचार में सहयोगी होना हमारे लिए अत्यंत शुभ योग है।
हालाँकि बाहर वातावरण दूसरा है। चुनाव संपन्न हुए हैं। उसके परिणाम भी आए और कल सरकार भी बन गई। ये सब हो गया, लेकिन उसकी चर्चा अभी तक जारी है। जो हुआ वो क्यों हुआ, कैसे हुआ, क्या हुआ? ये अपने देश के प्रजातांत्रिक तंत्र में प्रत्येक पांच वर्ष में होने वाली घटना है। उसके अपने नियम और डायनेमिक्स हैं। यह सब उसके अनुसार होता है। अपने देश के संचालन के लिए कुछ निर्धारण करने वाला वो प्रसंग है, इसलिए महत्वपूर्ण है। लेकिन इतना महत्वपूर्ण क्यों है? समाज ने अपना मत दे दिया, उसके अनुसार सब होगा। क्यों, कैसे, इसमें संघ के हम लोग नहीं पड़ते। हम लोकमत परिष्कार का अपना कर्तव्य करते रहते हैं। प्रत्येक चुनाव में करते हैं। इस बार भी किया है। बाकी क्यों हुआ, क्या हुआ, इस चर्चा में हम नहीं पड़ते।
मर्यादापूर्वक कर्म
कल ही आदरणीय सत्य प्रकाश जी महाराज ने हमको कबीर जी का एक वचन बताया। सार रूप में हम लोग उस प्रकार से विचार करते हुए इन सब बातों को देखते हैं। कबीर कहते हैं “निर्बंधा बंधा रहे बंधा निर्बंधा होई कर्म करे करता नहीं दास कहाय सोई”। जो सेवा करता है, जो वास्तविक सेवक है, जिसको वास्तविक सेवक कहा जा सकता है उसको कोई मर्यादा रहती है यानी वो मर्यादा से चलता है। काम सब लोग करते हैं, लेकिन कार्य करते समय मर्यादा का पालन करना। जैसाकि तथागत ने कहा है—कुशलस्य उपसंपदा, यानी अपनी आजीविका पेट भरने का काम सबको लगा ही है, करना ही चाहिए। अपने शरीर को भूखा नहीं रखना है, लेकिन कौशल पूर्वक जीविका कमानी है और कार्य करते समय दूसरों को धक्का नहीं लगना चाहिए। ये मर्यादा भी उसमें निहित है। ऐसी मर्यादा रखकर हम लोग काम करते हैं। काम करने वाला उस मर्यादा का ध्यान रखता है। वो मर्यादा ही अपना धर्म है, संस्कृति है। जो पूज्य महंत गुरुवर्य महंत रामगिरी जी महाराज जी ने अभी बहुत मार्मिक कथाओं से थोड़े में बताई, उस मर्यादा का पालन करके जो चलता है, कर्म करता है, कर्मों में लिप्त नहीं होता, उसमें अहंकार नहीं आता। वही सेवक कहलाने का अधिकारी रहता है।
चुनाव प्रजातंत्र की आवश्यक प्रक्रिया
ये उक्ति जब आदरणीय सत्यप्रकाश महाराज जी ने कल सुनाई तो मेरे मन में आया कि अपना विचार क्या है, संघ कैसे चलता है, उसको बताने का दूसरा कौन सा उपाय है? सरल उपाय यही है। चार पंक्तियों में संघ की वृत्ति ध्यान में आती है। क्योंकि इन बातों में उलझे रहेंगे तो काम रह जाएंगे। चुनाव प्रजातंत्र की आवश्यक प्रक्रिया है। उसमें दो पक्ष रहते हैं, इसलिए स्पर्धा रहती है। स्पर्धा रहती है तो दूसरे को पीछे करने और स्वयं को आगे बढ़ने का काम होता ही है, होना ही चाहिए। परंतु उसमें भी एक मर्यादा है। असत्य का उपयोग नहीं करना। चुने हुए लोग संसद में बैठकर देश को चलाएंगे, सहमति बनाकर चलाएंगे। हमारे यहां तो परंपरा सहमति बनाकर चलने की है—“समानो मंत्र: समिति: समानी। समानम् मनः सह चित्तमेषाम”। इस सहज चित्त पर विनोबा भावे जी की टिप्पणी है। वो कहते हैं कि ऋग्वेदकारों को मानवी मन का कितना ज्ञान था, ये समझ में आता है। सब जगह उन्होंने ‘सम’ कहा है (समानो मंत्रः समिति समानी समानम् मनः), लेकिन चित्त के बारे में सम नहीं कहा, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का चित्त, मानस अलग-अलग होता ही है। इसलिए 100% मतों का मिलान होना संभव नहीं है। लेकिन जब चित्त अलग-अलग होने के बाद भी एक साथ चलने का निश्चय करते हैं तो सह चित्त बन जाता है।
बिना कारण संघ पर प्रहार क्यों?
वास्तव में संसद क्यों है? उसमें दो पक्ष क्यों हैं? इसलिए हैं ताकि दोनों पहलू उजागर हों। किसी भी सिक्के के दो पहलू रहते हैं। ऐसे किसी भी प्रश्न के दो पहलू रहते हैं। एक पक्ष एक पहलू का विचार करता है तो दूसरे पक्ष में दूसरा पहलू उजागर करना है ताकि जो होना है वो पूर्णतः ठीक हो। सहमति बने, इसलिए संसद बनती है। लेकिन स्पर्धा करके आए लोगों में ऐसी सहमति बनना थोड़ा कठिन भी रहता है। इसलिए हम बहुमति का आसरा लेते हैं। उसके लिए स्पर्धा चलती है। ये स्पर्धा है, कोई आपस का युद्ध नहीं है। जिस प्रकार ये बातें हुई, जिस प्रकार एक दूसरे को लताड़ना हुआ, जिस प्रकार प्रचार के दौरान हमारे करने से समाज में मन-मुटाव बढ़ेगा, दो गट बंटेंगे, आपस में शंका-संशय उत्पन्न होगा, इसका भी ख्याल नहीं रखा गया। बिना कारण संघ जैसे संगठनों को भी उसमें खींचा गया। टेक्नोलॉजी का सहारा लेकर असत्य बातें परोसी गईं। नितांत असत्य। क्या शास्त्र का, विज्ञान का, विद्या का यह उपयोग है? सज्जन विद्या का ये उपयोग नहीं करते। विद्या विवादाय ये खलस्य यानी दुर्जन का काम कहा गया है—“विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय। खलस्य साधोर् विपरीतमेतद् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय”॥
विद्या का उपयोग प्रबोधन करने के लिए होता है, लेकिन आधुनिक विद्या (टेक्नोलॉजी) का उपयोग असत्य परोसने के लिए किया गया।
ऐसे देश कैसे चलेगा भाई! आखिर सबको देश ही चलाना है ना। दो पक्ष हैं। विरोधी पक्ष कहते हैं, मैं प्रतिपक्ष कहता हूं। वो विरोधी नहीं है। उसको विरोधी मानना भी नहीं चाहिए। वह प्रतिपक्ष है। वो एक पहलू उजागर कर रहा है। उसका भी विचार होना चाहिए। ऐसा जब चलना है तो चुनाव लड़ने में भी एक मर्यादा होती है। उस मर्यादा का पालन नहीं हुआ। उसका पालन होना इसलिए आवश्यक है क्योंकि हमारे देश के सामने चुनौतियां समाप्त नहीं हुई हैं। अब सरकार बन गई। वही सरकार फिर से आ गई। पिछले दस वर्षों में बहुत कुछ अच्छा हुआ। आधुनिक दुनिया जिन मानकों को मानती है, जिनके आधार पर आर्थिक की स्थिति का मापन किया जाता है उनके अनुसार भी हमारी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी हो रही है। हमारी सामरिक स्थिति निश्चित रूप से पहले से अधिक अच्छी है। दुनियाभर में हमारे देश की प्रतिष्ठा बढ़ी है। कला क्षेत्र में, क्रीडा क्षेत्र में, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में, संस्कृति के क्षेत्र में हम सब लोग विश्व के सामने आगे बढ़ रहे हैं। विश्व के प्रगत देशों ने भी हमको धीरे-धीरे मानना शुरू किया है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि हम चुनौतियों से मुक्त हो गए।
विकास पथ में बदलाव आवश्यक
चुनाव के आवेश में या अतिरेक में हमसे जो हो गया, उससे मुक्त होकर हमको आने वाली बातों का विचार करना है। समस्याओं से राहत लेनी है। अभी हम बैठे हैं, गर्मी लग रही है। कुछ दिन पहले कितनी गर्मी थी! इस वर्ष हर वर्ष से बहुत अधिक गर्मी हुई और सर्वत्र हुई। पर्वतीय क्षेत्रों में भी हुई। बेंगलुरु जैसे महानगर में जल का संकट आ गया। हिमालय की हिम नदियों के पिघलने के बारे में तरह-तरह की बातें छप रही हैं। पर्यावरण का ये संकट सारी दुनिया पर है। जो भारत संस्कारों से ही पर्यावरण का मित्र बनकर चलता रहा है, कृज्ञतापूर्वक नदियों को, वृक्षों को, पहाड़ों को, पशुओं को, पक्षियों को पूजता है, उनके साथ अपना संबंध मानता है, वहां भी ये संकट खड़ा हुआ है। क्योंकि विकास पथ की दृष्टि अधूरी है। उसको बदलना होगा, सबको बदलना होगा। जिसके पास ये दृष्टि पहले से है वो भारत अपने आप को कैसे बदलता है, ये देखकर दुनिया उसका अनुकरण करने वाली है। इसलिए हमको स्व के आधार पर अपना एक विकास पथ ठीक से बनाना है। उस स्व का विचार करके भी बहुत सी बातें हो रही हैं। लेकिन हमको मूल से विचार करके सारी बातें बदलकर करना पड़ेगा। ज्ञान-विज्ञान का जो आधुनिक प्रवास और प्रयास है, उसको भी ध्यान में रखकर चलना होगा। अपनी परंपरा का ज्ञान जो काल सुसंगत है, उसको साथ लेकर, वसुधैव कुटुंबकम, सृष्टि अपनी माता है, हम सृष्टि के विजेता नहीं है, हम सृष्टि के अंग हैं, वो माता है, उसका दोहन करना है, उसका पोषण होना चाहिए, इस पर ध्यान देना है।
उस ढंग से विकास की रीति, उस ढंग से अपने विकास के प्रतिमान हमको बनाने पड़ेंगे। उसके लिए देश में शांति चाहिए। समाज में जगह-जगह कलह नहीं चलता। एक साल से मणिपुर शांति की राह देख रहा है। उससे पहले 10 साल शांत रहा। ऐसा लगा कि पुराना ‘गन कल्चर’ समाप्त हो गया। परन्तु अचानक जो कलह वहां पर उपज गई या उपजाई गई, उसकी आग में वह अभी तक जल रहा है, त्राहि-त्राहि कर रहा है। कौन उस पर ध्यान देगा? प्राथमिकता देकर उसका विचार करना हमारा कर्तव्य है।
जीवन मूल्यों का हस्तांतरण
समाज में कितनी बातें आ रही हैं! भले घरों की महिलाएं शराब पीकर कार चलाती हैं और कार के नीचे लोगों को रौंद देती हैं। हमारे संस्कार कहां गए! हमारी संस्कृति कहां है! जो संस्कृति अभी तक दुर्जेय सी बनी है, अभी भी उसको कोई नहीं जीत सकता, लेकिन उस संस्कृति के वाहक हम लोग उसकी परवाह रखेंगे तभी…। इसलिए समाज में पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले, संपूर्ण सृष्टि की धारणा करने वाले धर्म के संस्कार जो संस्कृति हमको सिखाती है, उस संस्कृति के पनपने का और उसके आगे की पीढ़ी तक पहुंचने का प्रश्न खड़ा हो गया है। जिन्होंने उसको त्याग दिया, उनकी स्थिति दुनिया में अच्छी नहीं है। भले ही भौतिक वैभव होगा, परिवार टूट रहे हैं, मन में अशांति है, छोटे बच्चे बंदूक लेकर अपने विद्यालय के सहपाठियों को गोलियों से भून डालते हैं, ऐसी परिस्थितियों आती हैं। पिताहीन मातृत्व, कितनी बातें हैं! क्या हमको वैसे बनना है? क्या हमको अपना परिवार प्यारा नहीं है? क्या हमारे सगे-संबंधी हमारे कुछ नहीं लगते? उस संस्कृति के संरक्षण का प्रश्न है। उसके लिए समाज में बात करने वाले, समाज में विभिन्न कार्यक्रम करने वाले, समाज का प्रबोधन करने वाले माध्यम, सबको अपने ऊपर संयम का बंधन लाना पड़ेगा। ऐसा वो बंधन लाएं, क्योंकि आज के तंत्र में सरकार बहुत सी बातें देखती है। उसके लिए भी सरकारों को प्रावधान करने पड़ेंगे। बहुत काम करने हैं। ये काम केवल सरकारों को नहीं करने हैं। इनकी भी चर्चा हम करते हैं, लेकिन केवल चर्चा करने से नहीं होता, इसके लिए समाज को सिद्ध होना चाहिए।
परिवर्तन के लिए समाज का खड़ा होना आवश्यक
प्रजातंत्र में समाज ही राजा को बनाता है और समाज ही अपनी स्थिति को बनाता है। इसलिए समाज अपने आप खड़ा हो यह पहली आवश्यक बात होती है। समाज परिवर्तन से व्यवस्थाओं का परिवर्तन होता है। दुनिया में सर्वत्र यही हुआ है। जब कोई परिवर्तन आया तो पहले समाज में आया और उसके कारण व्यवस्था में आया। नेतृत्व खड़ा हुआ, लेकिन नेतृत्व को समाज का प्रतिसाद मिलने के लिए समाज का परिवर्तन हुआ। फ्रांसीसी राज्य क्रांति में फ्रांस के गरीबों का असंतोष शिखर पर पहुंच गया था, इसलिए क्रांति की बात करने वालों के पीछे सारी जनता खड़ी हो गई। यही रूस में हुआ है। समाज में यह भाव पैदा हो गया कि इससे छूटना है, इससे बाहर आना है। अब वहां ये संस्कृति नहीं है, जिसका वर्णन अभी महात्मा जी ने किया। संयम, सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, हमारे पास हैं। हमारे पास यही था, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति अलग प्रकार थी और वो भारतीय अभिव्यक्ति थी।
बाबासाहेब डॉ भीमराव आंबेडकर कहते हैं कि कोई बड़ा परिवर्तन होने से पहले समाज में एक बड़ा आध्यात्मिक जागरण होता है। ये नियम है। अपने देश में तो है ही। शिवाजी महाराज से पहले सैकड़ों वर्ष तक संतों ने आध्यात्मिक जागरण किया। भक्ति की बुनियाद पर सारे समाज के भेद मिटाकर, वर्ण अभिमान का विसर्जन करके समाज खड़ा किया तो शिवाजी महाराज ने स्वराष्ट्र का विचार रखा। उसके पीछे सामान्य आदमी खड़ा हुआ। अपना घर गृहस्थी संभालते हुए उनके लिए लड़ता था। इसलिए दुनिया की बलाढ्य ताकतें भी उसको पराजित नहीं कर सकीं। ये समाज के निर्माण का काम करना है। समाज में एकात्मता चाहिए, समाज में संस्कार चाहिए।
मूल में तो हम एक ही
अपने समाज में एक और विशेष बात यह है कि हमारा समाज विविधताओं से भरा हुआ है और ये जानने वाला समाज है कि ये विविधताएं मिथ्या हैं। कुछ दिन चलती हैं। बाद में विविधता नहीं रहती। मूल में तो हम एक ही हैं। विविधता भी हमारी एकता का आविष्कार है, अभिव्यक्ति है। इसलिए उसको स्वीकार करो, मिलजुल कर चलो, सब सही है। अपने-अपने मत की श्रद्धा पर पक्के रहो। दूसरों के मत का उतना ही सम्मान करो। उनका भी मत सत्य है, ये स्वीकार करो और मिलकर धर्म की राह पर चलो। मैं धर्म यानी पूजा की बात नहीं कर रहा हूं। अपनी-अपनी पूजा पर श्रद्धा रखकर, बाकी पूजाओं को भी उतना सत्य मानकर सब लोगों को मिलकर सबकी धारणा करनी है, सबको जिलाना है, सृष्टि को भी जिलाना है। पूरे अस्तित्व के विचार से अपने जीवन को चलाना है। ये धर्म है। उस धर्म मार्ग पर बढ़ते हैं तो उन्नति होती है।
हमारे देश में विविधता में एकता की दृष्टि बहुत पुरानी है। ‘कूर्म पुराण’ में यहां की जनता का वर्णन है। उसमें कहा गया है कि भारत भूमि की प्रजा अनेक देवी-देवताओं की पूजा करती है और अनेक प्रकार के रीति-रिवाज रखती है, अनेक भाषाएं बोलते है, फिर भी मिलजुल कर चलती है। ‘अथर्ववेद’ की ऋचा भी प्रसिद्ध है: “जनं विभ्रति बहुधा, विवाचसम्, नाना धर्माणंम् पृथ्वी यथौकसम्”। ये हमारी रीति है। जब से हम इस रीति को भूल गए, तब से हमारा पतन हुआ। तब हमने अपने ही भाइयों को अस्पृश्य कहकर दूर रखा। कोई इसके पीछे न्याय नहीं है। कोई शास्त्र इसके पीछे नहीं है। ना इसको वेदों का आधार है, न उपनिषदों का। ये तो स्वार्थी लोगों का बुना हुआ जाल है। अथवा कुछ समय ऐसा आया होगा, जिसमें ऐसा चलना पड़ा होगा। पता नहीं क्या था। लेकिन वो कालबाह्य है और गलत है। समाज में एकता चाहिए। लेकिन अन्याय होता रहा है, इसलिए आपस में दूरी है, मन में अविश्वास है। हजारों वर्षों का काम होने के कारण चिड़ भी है।
बदलाव की शुरुआत स्वयं से
अपने देश में बाहर से आक्रामक आए तो आते समय अपना तत्वज्ञान भी लेकर आए। यहां के कुछ लोग विभिन्न कारणों से उनके विचारों के अनुयायी बन गए। ठीक है, अब वो लोग चले गए, उनके विचार रह गए और उसको मानने वाले भी रह गए। हैं तो ये यहीं के। विचार वहां के हैं, लेकिन यहां की परंपरा को उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बस एक बात है कि भारत के बाहर के विचारों में जो ‘हम ही सही बाकी सब गलत है’ की दृष्टि है उसको छोड़ो। मतांतरण वगैरह नहीं करने की जरूरत है। सब मत सही हैं। सब समान हैं, तो फिर अपने मत पर ही रहना ठीक है। दूसरों के मत का भी उतना ही सम्मान करो। इनका तत्त्व देने वाले बाहर से आए थे तो लड़ाई हुई, संघर्ष हुए। संघर्ष का लंबा इतिहास है। बहुत गहन संघर्ष हुए, बहुत कटु संघर्ष हुए। उसकी यादें हम भूले नहीं हैं। उन यादों को भूले नहीं, इसलिए देश टूट गया। वो भी इन दूरियों को और चौड़ा करता है।
बहुत गहरे घाव हैं। उसकी पीड़ा है। अन्याय के प्रति जो चिढ़ है, उसके कारण अपने ही समाज के लोग रूठे हुए हैं, गुस्से में हैं, मन में आशंका है, दूरी है। इतिहास के कारण जो घाव हुए, उसकी पीड़ा है। इसलिए हम दूर हैं। तो पास आने और एक होने का मार्ग क्या होगा? मार्ग तो यही होगा कि उसको भूतकाल में जमा कर दो। डर है तो दुर्बल मत बनो। शक्ति संपन्न बनो, डर नहीं रहेगा। लेकिन शक्ति के साथ शील संपन्न बनो। शील अपने धर्म और संस्कृति से आता है, जो सत्य के बाद अहिंसा को कहता है, सबके प्रति सद्भावना को कहता है। सबके प्रति सद्भावना को लेकर, पुरानी बातों को भूलकर सबको अपनाना और हम एक-दूसरे को अपना सकें, इसलिए अपने को जो बदल अपने में करना है, अपने घर से उसका प्रारंभ करना है, स्वयं से प्रारंभ करना है।
विकृतियों को सुधारने का समय
अपने ही बंधुओं को, जो हमने ही दूर किए, उनको लेने के लिए जाति-पाति की बात ‘शुड गो आउट लॉक स्टॉक एंड बैरल’। बालासाहब जी ने यह कहा है। भाषण और कार्यक्रमों में यह जाती है, परंतु मेरे आचरण और मेरे घर के आचरण से भी जानी चाहिए। उसकी जगह समताधिष्ठित व्यवहार की प्रतिस्थापना होनी चाहिए। कठिन होगा, लेकिन देश के लिए करना पड़ेगा। हजारों वर्षों से जो पाप हमने किया उसके प्रक्षालन के लिए करना पड़ेगा। ऐसे ही आपस में मिलना-जुलना है। एक ही बुनियाद है। वही यम, नियमात्मक आचरण का पुरस्कार सर्वत्र है और एक से सब निकला है—“एकं सत विप्रा बहुधा वदन्ति”। यही सबकी श्रद्धा है। इसलिए वो संबंध रखना, आना-जाना, अभेद बरतना, रोटी-बेटी सब प्रकार के व्यवहार होने दो। बाहर की विचारधाराएं आईं । उनकी प्रकृति ऐसी थी कि ‘हम ही सही बाकी सब गलत’। अब उसको ठीक करना पड़ेगा, क्योंकि वो आध्यात्मिक नहीं है।
इन विचारधाराओं में जो अध्यात्म है, उसको पकड़ना पड़ेगा। पैगंबर साहब का इस्लाम क्या है, सोचना पड़ेगा। ईसा मसीह की ईसाइयत क्या है, सोचना पड़ेगा। भगवान ने सबको बनाया है। भगवान की बनाई इस कायनात के प्रति अपनी भावना क्या होनी चाहिए, सोचना पड़ेगा। सोच समझ कर, जो समय के प्रवाह में विकृतियां आई हैं उनको हटाकर और ये जानकर कि मत अलग हो सकते हैं, तरीके अलग हो सकते हैं, सब अलग हो सकता है, हमको इस देश को अपना मानकर उसके साथ अपना भक्तिपूर्ण संबंध स्थापित कर, इस देश के पुत्र सब अपने भाई हैं, ये जानकर व्यवहार करना पड़ेगा। ये होना है तो उसके लिए आदत की आवश्यकता रहेगी। क्योंकि विचार तो अच्छे होते हैं, मन को भी अच्छे लगते हैं, बुद्धि भी उनको मान्य करती है, लेकिन दशकों की, शतकों की जो आदत है उसको सुधारने में समय लगता है। इसलिए उसके लिए रोज व्यायाम करने की आवश्यकता है। वो व्यायाम ही संघ की शाखा है। ये सारी बातें संघ की शाखा में होती हैं। हंसते खेलते होती हैं। करने वालों को ध्यान में भी नहीं आता कि जो मैं कर रहा हूं, उससे ये हो रहा है। दस-बारह साल के बाद पीछे मुड़कर उस समय के स्वयं के चित्र को देखता है तो उसको लगता है कि मैं कितना बदल गया। संघ यही काम करता है। संघ इसी के लिए है। ये करते हुए अपने विश्व के सारे जीवन का आधार बनने वाले भारत को फिर से उस रूप में खड़ा करना है। ये कर्तव्य है, इसको करना है। इसलिए ये तपस्या है और इसलिए हम इन सारी बातों को करते हैं।
पांच बातों का आग्रह
अभी पांच बातों का आग्रह हम समाज के सामने रख रहे हैं। स्वयंसेवक अपने से प्रारंभ करेंगे। उन्होंने कर लिया है। धीरे-धीरे बनेंगे। इनमें पहली बात है सामाजिक समरसता का व्यवहार। अपने कार्य क्षेत्र में जितने प्रकार का समाज रहता है, उन सबमें अपने मित्र और मित्र कुटुंब होने चाहिए। जहां शक्ति है और लगता है कि समाज हमारे कहने से मान सकता है वहां मंदिर, पानी, श्मशान सबका एक होना चाहिए। पर्यावरण के बारे में हम प्रयास करेंगे—पानी बचाओ, प्लास्टिक हटाओ, पेड़ लगाओ, अपना घर हरित घर बनाओ। स्व-आधारित सारा व्यवहार हो। स्व-आधारित जीवन की कल्पना में उपभोग के लिए जीवन नहीं है। समृद्धि चाहिए, अय्याशी नहीं चाहिए। श्री सूक्त में हम लक्ष्मी जी की स्तुति करते हैं। उसमें जैसे ‘धान्यम धनम् बहू पुत्र लाभम्” वगैरह कहा है, वैसे ही “न क्रोधो न लोभो न मात्सर्यं नाशुभामति:” भी कहा गया है। हम नीति युक्त लक्ष्मी की पूजा करते हैं। उपभोग की अंधी दौड़ में हम नहीं दौड़ते, संयम रखते हैं। संयमित उपभोग पर हमारा विश्वास है। इसलिए फिजूल खर्च नहीं करना। बहुत ज्यादा तामझाम की आवश्यकता नहीं। सादगी से रहना, मितव्ययता से रहना, आवश्यकताएं सारी पूरी हों। समाज है तो उसमें थोड़ा बहुत स्थान मान सबका रहता है। उसके अनुसार अपना रहना-सहना हो, परंतु अनावश्यक खर्च नहीं करेंगे। सादगी से रह सकते हैं, रहेंगे। स्व-आधारित स्वदेशी का व्यवहार यही है। जो अपने घर में बन सकता है, बाहर से नहीं लाना। एकाध बार रविवार को चले गए पिज्जा खाने, ठीक है। लेकिन यह नियम नहीं बनना चाहिए। जो अपने देश में बनता है वो बाहर से नहीं लाना। बाहर से लेना तो पड़ता है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय व्यापार है। लेकिन देश की नीतियाँ ऐसी बनें कि जो लेना है वह हम अपनी शर्तों पर लें। कोई हमको दबाए और उसके चलते हम लें, ऐसा न हो।
धीरे-धीरे घर का वातावरण सांस्कृतिक बने
अपने देश की व्यवस्था, कानून, संविधान, अनुशासन आदि सारी बातों का पालन करना। लाल बत्ती पर रुक जाना। जहां कतार में खड़ा रहना है वहां कतार में ही खड़ा रहना। नगर पालिका से लेकर राज्य सरकार व केंद्र सरकार तक जो कर भरण होता है, वह समय पर करना। कोई नियम तोड़ना नहीं, कोई व्यवस्था तोड़ना नहीं, अनुशासन में रहना। ये सारा मैं और मेरा परिवार कर सके इसलिए हफ्ते में एक दिन अपने परिवार के साथ बैठना। अपने कुल की परंपरा, देश की संस्कृति और उसके मूल्यों पर आधारित व्यवहार कैसे करें इसका स्मरण करना। उनको अपने जीवन में परिश्रम से जुड़ा कोई प्रसंग बताना, प्राण देकर भी निभाने वाले अपने कुल के और अपने देश के पूर्वजों का स्मरण करना। उसके अनुसार अपना घर है अथवा नहीं इसकी चर्चा करना और सहमति से जो तय होता है वो लागू करना।
घर के सब लोग एक बार बैठें और श्रद्धानुसार सप्ताह में एक बार भजन करें, घर में बनाया हुआ भोजन आनंद से करें और तीन-चार घंटा गपशप करके सारी बातों की चर्चा करें और धीरे-धीरे अपने घर का वातावरण सांस्कृतिक बनाएं। हजारों वर्षों की, शतकों की, दशकों की, युगों की अपनी ऐसी परंपरा है। उस परंपरा की विश्व को आवश्यकता है। हम उसको कालसुसंगत रीति से, आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और अपनी परंपरा दोनों का समन्वय करते हुए चरितार्थ करेंगे तो दुनिया को राहत मिलेगी। अपना देश भी अच्छा बनेगा, हमारा जीवन भी सुंदर होगा, सार्थक होगा।
संघ कार्य में सहयोगी बनिए
उस जीवन को बनाने का रास्ता सीखने के लिए स्वयंसेवक संघ की शाखा में आता है। पूरा समाज संघ की शाखा में आए ऐसा आग्रह इसीलिए संघ रखता है। वहां क्या-क्या होता है, कैसे कार्यक्रम होते हैं, कौन से गीत होते हैं, कैसे सुभाषित होते हैं, यह सब ऐसे कार्यक्रमों से आपको देखने को मिलता है। परंतु दूर रहकर देख कर तो इसका कुछ होने वाला है नहीं। इसमें सहयोगी बनें, सहभागी बने इसकी आवश्यकता है। ये संघ की शाखा का कार्यक्रम आपने देखा है। लेकिन संघ के स्वयंसेवक अनेक काम करते हैं। नित्य चलने वाले छोटे-बड़े सेवा कार्य और सेवा की गतिविधियां मिलाकर एक लाख बाइस हजार से ऊपर काम चल रहे हैं। भीड़ होती है तो कैटेगिरी अलग बनाकर हमको गिनने की कुछ बातें छोड़नी पड़ती हैं। वह कार्य इतना बड़ा है।
जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जिसमें संघ के स्वयंसेवक कोई मंच या कोई संगठन बनाकर सक्रिय नहीं हैं। उन सबमें आप आ सकते हैं। परंतु ये जो रोज का व्यायाम है हमारे शरीर, मन, बुद्धि का, ऐसे काम में हम रहें, उन कामों से अपने आप को बांध लें, कर्तव्य समझकर करें। लेकिन बांधकर भी निर्बंधा रहे। काम करें, लेकिन मैंने किया यह अहंकार न पालें। तब होगा कि हम इस देश की सच्ची सेवा कर रहे हैं। अपने देश को इस सच्ची सेवा की आज आवश्यकता है। विश्व को भी यह आवश्यकता है। पूरे विश्व की सेवा भारत का जीवन ध्येय है। वो करने लायक भारत को खड़ा करना है तो समाज को इस प्रकार बनना पड़ेगा। समाज ऐसे बनेगा तो व्यवस्थाएं और व्यवस्था चलाने वाले लोग, अपने आप उसके पीछे-पीछे चलकर ऐसा बनेंगे।
भगवान काम करते नहीं करवाते हैं
निर्माण हमेशा बुनियाद से शुरू होता है। पहले शिखर बाद में बुनियाद, ये चमत्कार केवल भगवान ही कर सकते हैं। भगवान दुनिया में कोई काम करते नहीं, करवाते हैं। बैठे-बैठे सुदर्शन चक्र चला देते रावण मर जाता, लेकिन मनुष्य रूप लिया, इतने कष्ट सहन किये, सुदूर जंगलों में जाकर ग्रामों में जाकर जागृति की। वो लोग साथ आए, सामने रहकर लड़े, तब रावण का वध हुआ। शमी पर रखे अपने शस्त्र उतारकर पांडव धर्मयुद्ध के लिए सिद्ध हो गए, तब भगवान कृष्ण ने केवल सारथ्य किया। चाहते तो द्रोपदी के वस्त्रहरण प्रसंग में ही कौरवों को भस्म कर देते। लेकिन भगवान ‘पहले शिखर बाद में बुनियाद’ का चमत्कार बहुत कम करते हैं। भगवान की रीति ये है कि वो हमको बुद्धि देता है, हमको स्वतंत्रता देता है, संस्कारों द्वारा शुद्ध बुद्धि के प्रकाश में काम करने का अवसर देता है। हमारे काम करने पर भगवान की उंगली लगती है। हमारी लकड़ी पर गोवर्धन उठ रहा है ऐसा हमको लगता है, लेकिन उंगली भगवान की लगती है और उंगली तभी लगती है जब हमारी लकड़ी लगेगी। यही सर्वत्र दुनिया के इतिहास में हुआ है। यही अपने यहाँ होना चाहिए, होने जा रहा है। हमको उसका निमित्त बनकर काम करना है। इसलिए संघ के इस महाअभियान में आप सबको आमंत्रित करता हूं।
(दिनांक 10 जून, 2024 को नागपुर में आयोजित कार्यकर्ता विकास वर्ग द्वितीय के समापन अवसर दिया गया उद्बोधन। कार्यक्रम में श्रद्धेय गुरुवर्य श्री रामगिरी जी महाराज मुख्य अतिथि थे।)