विद्यालयों के माध्यम से हमे इस देश से एकरूप रहनेवाला, तन्मय रहनेवाला तथा इस देश के आचार-विचार से बंधा नागरिक साकार करना है, ऐसा प्रतिपादन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने यहां किया । इसी से उस व्यक्ती का विकास होगा, भारत बड़ा होगा और विश्व को सुख-शांती का मार्ग मिलेगा, ऐसा उन्होंने कहा।
नागभीड की गोंडवन विकास संस्था का सुवर्ण जयंती महोत्सव और स्व. ज. स. जनवार जन्मशताब्दी महोत्सव के समापन समारोह में सरसंघचालक जी बोल रहे थे। मंच पर गोंडवन विकास संस्था के अध्यक्ष राजाभाऊ देशपांडे, सचिव रवींद्र जनवार एवम् विधायक कीर्तिकुमार भांगडिया उपस्थित थे।
शिक्षा से स्वस्वरूप की पहचान सम्भव है, इस से स्वावलंबन आता है। अपनी शैक्षणिक संस्था से शिक्षा प्राप्त कर चुके विद्यार्थी अपने पैरों पर खड़े होने चाहिए। उन्हे शिकायत नहीं करनी चाहिए। उनमें इतना आत्मविश्वास निर्माण होना चाहिए, कि विश्व में जहां भी जाएं, अपने पैरों पर खड़े होकर अपने परिवार की आजिविका की पूर्तता करते आना चाहिए, ऐसी अपेक्षा सरसंघचालक जी ने व्यक्त की।
विद्यालयीन शिक्षा से बच्चोंको दिशा प्राप्त होती है। जीवन जीने का सामर्थ्य, आत्मविश्वास मिलता है। हमें अच्छा इंसान, देश का जिम्मेदार नागरिक और विश्वमानवता का उत्कृष्ट घटक बनाना है। यह दिशा शालेय शिक्षण से प्राप्त होती है, इस ओर उन्होंने ध्यान आकर्षित किया।
डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा, कि महाविद्यालय पहुंचते तक जो प्रवृत्तीयां बननी हैं, वो बन चुकी होती हैं। उस समय स्वभाव बदलना कठिन होता है। शैशवावस्था में स्वभाव बनता है। यह आयु आकार लेने की होती है।
संस्कारक्षमता की एक आयु होती है। उस काल में बच्चे हमारे नियंत्रण में होते हैं। उन्हें योग्य दिशा प्राप्त हो, इसलिए विद्यालय होते हैं। ऐसीही विद्यालये चलाईं इसीलिए हम जनवार गुरुजी की जन्मशताब्दी मना रहे हैं। इसी विचार पर संघ और संघ विचारोंकी शालाएं चलती हैं।
सरसंघचालक जी ने आगे कहा कि, शिक्षा उदाहरणों से मिलती है। भाषण तथा पुस्तकों से उसका पर्याप्त बोध नहीं हो पाता। जैसा है, वैसा दिखता है । और जब वह पुस्तक तथा भाषणों से मेल खाता है, तब उसका परिणाम होता है।
अपने जैसे लोग परिश्रम कर अच्छे बनते हैं। उनका अनुकरण बच्चे करते हैं। घर में पालकों द्वारा दी गई दिशा भी महत्वपूर्ण होती है। यदि हम बच्चों कों सदा खूब धन कमाओ, यही बताते रहे तो वो आगे हमारी भी नहीं सुनेंगे। केवल धन कमाते रहेंगे।
हम रवींद्र जनवार इनके पिता की जन्मशताब्दी मना रहे हैं। उन्होंने अपना पूरा जीवन, नैतिक शिक्षण के लिए खपा दिया। गोंडवन का विकास हो, यह उनकी इच्छा थी। स्वत्व की ओर मुड़े, तो विकास होता है। शिक्षा से अपने स्वरूप का दर्शन होता है। मुक्ती, मोक्ष अर्थात् अपने स्वरूप का दर्शन।
‘मैं कौन’ इसकी पहचान करना, यही सबसे बड़ी शिक्षा है। ‘सा विद्या या विमुक्तये’, ऐसा हमारे यहां कहा गया है। इसका अर्थ है ‘विद्या वह, जो मुक्त करती है।’ इस प्रकार की विद्या देनेवाले विद्यालय स्थापन करने हेतु जनवार गुरुजी ने अपना जीवन खपा दिया, ऐसा मोहनजी ने कहा।
येह मेरा, यह तेरा -ये छोटी बुद्धि के विचार हैं। जिनका हृदय विशाल है, वे समूचे विश्व को अपना परिवार मानते हैं। हम हिंदू हैं, यह अपनी पहचान हो गई, तो अपने आप यह विचार मन में आता है। शिक्षा भी ऐसी ही मिलनी चाहिये, ऐसे शिक्षण से विकास होता है।
अच्छी शिक्षा प्राप्त करने पर भी लोग शहर नहीं जाते, छोटे गांवों में रहते हैं। कारण क्या, अपनापन। यह अपनापन सिखाया तो शेष बातें अपने आप आ जाती हैं।
समूचे देश में यह अपनापन उत्पन्न होना चाहिए, यह संघ का विचार है और यही हिंदूओं का परंपरागत विचार है। संविधान का भी यही विचार है। देश में भावनिक एकता उत्पन्न होनी चाहिए, ऐसा स्पष्ट उल्लेख संविधान के मार्गदर्शक तत्व में है। विद्यालयों से यह शिक्षा प्राप्त हो, ऐसी जनवार गुरुजी की अपेक्षा थी, अतः उन्होंने ऐसीही शालाएं स्थापन की, यह बात भी सरसंघचालक जी ने अधोरेखित की।