THE SHIFT by Wayne Dyer

बीसवीं शताब्दी के अंतिम दिनों में मुंबई से ‘आफ्टरनून केरियर एण्ड डिस्पैच‘ नाम का समाचार पत्र प्रकाशित हुआ करता था।

पत्र में राजनीतिज्ञों की भेंटवार्ता ‘ट्वन्टी क्वेस्चन‘ (बीस प्रश्न) शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित होती थी।

सन् 1991 में इस ‘ट्वन्टी क्वेस्चन‘ वाले इन्टरव्यू के लिए जब मुझसे सम्पर्क किया गया तो पहला प्रश्न था: ”मिस्टर आडवाणी, आपकी सर्वाधिक बड़ी कमजोरी आप किसे मानते हैं?”

मेरा उत्तर था ”पुस्तकें!” और मैंने जोड़ा ”और सामान्य स्तर पर, चाकलेट।”

तब से सभी वर्षगांठों, चुनावी सफलताओं इत्यादि ऐसे सभी अवसरों पर आने वाले मित्र मेरे निजी पुस्तकालयों में पुस्तकों का इजाफा करते रहे या चॉकलेट देते रहे हैं।

अनेक पुस्तकें मुझे फादर एजनेल हाईस्कूल दिल्ली के फॉदर बेंटों राड्रिग्स ने भेंट की हैं। ‘मेरा देश, मेरा जीवन‘ शीर्षक वाली अपनी आत्मकथा में मैंने उल्लेख किया है कि नरसिम्हा राव के शासनकाल में मेरे विरुध्द लगाए गए आरोपों के चलते न केवल मैंने लोकसभा से त्यागपत्र दे दिया अपितु साथ-साथ यह घोषणा भी कि जब तक मुझे न्यायालय से इन आरोपों से मुक्त नहीं किया जाता तब तक मैं संसद में प्रवेश नहीं करुंगा।

मेरे विरुध्द हवाला आरोप 1996 के शुरुआत में लगाए गए थे। अत: उस वर्ष जब लोकसभा के चुनाव हुए तो मैंने चुनाव नहीं लड़ा। इस बीच मैंने अपने विरुध्द दायर गई चार्जशीट को चुनौती दी।

दिल्ली उच्च न्यायालय में सोलह महीनों तक केस चलता रहा। अप्रैल 1997 में दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति मोहम्मद शमीम ने अपने निर्णय में मेरे विरुध्द भ्रष्टाचार के आरोपों को रद्द कर दिया।

मेरे लिए अच्छा यह हुआ कि 1996 में गठित लोकसभा अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। यह दो वर्षों के भीतर ही भंग हो गई। अत: 1998 में जब चुनाव हुए तो मैं भी लड़ा और विजयी हुआ। सन् 1970 में मैं पहली बार संसद के लिए चुना गया था। उसके बाद से सिर्फ इन दो वर्षों (1996-1998) में मैं संसद में नहीं था। इस अवधि के दौरान फॉदर राड्रिग्स ने मुझे एक प्रेरणास्पद पुस्तक ‘टफ टाइम्स डू नॉट लॉस्ट! टफ मैंन डू‘ भेंट की।

THE SHIFT by Wayne Dyer

कुछ महीने पूर्व उन्होंने मुझे एक और रोचक पुस्तक दी जिसका शीर्षक है”दि शिफ्ट” पुस्तक के लेखक हैं डा. वायने डब्ल्यू डायर। पुस्तक का उपशीर्षक है ”टेकिंग युअर लाइफ फॉर्म एम्बीशन टू मीनिंग”। इस उपशीर्षक ने तत्काल मेरे मस्तिष्क को झंकृत कर दिया। इसने मुझे मेरी आत्मकथा के अंतिम अध्यायों में से एक ‘जीवन में सार्थकता एवं सुख की खोज‘ का स्मरण करा दिया। कुछ समीक्षकों ने इसे पुस्तक के सर्वोत्तम अध्यायों में से एक निरुपित किया है।

अध्याय की शुरुआत एक सर्वाधिक लोकप्रिय रोमांचक पुस्तक, जिसे मैंने पढ़ा हुआ है के संदर्भ से होती है। यह पुस्तक थैल विश्वविद्यालय के विधि के प्रोफेसर जेड रुबेनफेल्ड द्वारा लिखी गई है जिसका शीर्षक है ”दि इंटरप्रिटेशन ऑफ मर्डर”। हालांकि मुझे लगा कि यह पुस्तक एक हत्या रहस्य के बजाय जीवन के रहस्य के बारे में ज्यादा है।

यह रुबेनफेल्ड का पहला उपन्यास था। शेक्सपीयर और सिगमंड फ्रायड के विद्यार्थी इस लेखक ने इस पुस्तक में मानव अस्तित्व के दो मुख्य आधार बिन्दुओं: सुख और सार्थकता के बारे में एक मनोविश्लेषणात्मक अन्वेषण प्रस्तुत किया।

 

लेखक मानता है कि सुख का कोई रहस्य नहीं है।

”सभी दु:खी व्यक्ति एक जैसे ही होते हैं। बहुत समय पहले कोई मन को चोट लगी हो, कोई इच्छा पूरी न हुई हो, अहम को ठेस पहँची हो, प्रेम का नव अंकुर जिका मजाक उड़ाया गया हो-या इससे भी बदतर,उनके प्रति उदासीनता दिखाई गई हो-ये उन दु:खी व्यक्तियों से चिपके रहते हैं, या वह उनसे चिपका रहता है। और इस तरह दु:खी व्यक्ति हर दिन गुजरे जमाने की यादों में बिताता है। लेकिन प्रसन्न व्यक्ति कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखता, और न ही वह आगे की सोचता है। वह तो सिर्फ वर्तमान में ही जीता है।

”लेकिन इसी में तो अड़चन है। वर्तमान कभी भी एक चीज नहीं दे सकता: सार्थकता। सुख और सार्थकता दोनों एक मार्ग नहीं होता। सुख पाने के लिए मनुष्य को केवल वर्तमान में रहना होता है: उसे केवल उस क्षण के लिए जीना होता है। लेकिन यदि वह सार्थकता चाहता है-अपने स्वप्नों की, अपने रहस्यों की,अपने जीवन की सार्थकता-तो मनुष्य को अपने अतीत में पुन: प्रवेश करना होगा, भले ही वह कितना भी अंधकारमय क्यों न रहा हो; और उसे भविष्य के लिए जीना होगा, भले वह कितना ही अनिश्चित हो। इस प्रकार, प्रकृति हम सबके सामने सुख और सार्थकता का विकल्प रखती है, इस आग्रह के साथ कि हम दोनों में से किसी एक को चुन लें।”

जहां तक मेरा सवाल है, मैंने सार्थकता को चुना है – यही मैंने अपनी पुस्तक में कहा है।

मैंने लिखा है कि सार्थकता प्रयोजन से आती है, मिशन की भावना से आती है, जीवन में हम कुछ भी आह्वान क्यों न करें।

सन् 2008 में प्रकाशित अपनी आत्मकथा में मैंने उल्लेख किया है:

”जब मैं अपने जीवन के आठ दशकों की ओर झांकता हूं तो मुझे याद आता है कि मैंने अपने जीवन का आह्वान तब पाया, जब सिंध के हैदराबाद में टेनिस कोर्ट पर पहली बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम सुना और वर्ष 1942 में संघ का स्वयंसेवक बन गया। मुझे सार्थकता का अनुभव तब हुआ, जब मैंने रविवार शाम को कराची में स्वामी रंगनाथानंद के ‘भगवतगीता‘ पर प्रवचन सुनने आरंभ किए। मुझे सार्थकता तब पता चली, जब मैंने पहले कराची में तथा देश के विभाजन के बाद राजस्थान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रुप में कार्य करने के लिए अपना घर-परिवार छोड़ दिया। यह सार्थकता उस समय और अधिक समृध्द हो गई,जब मैंने पचपन वर्ष पहले भारतीय जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता के रुप में अपनी राजनीतिक यात्रा प्रारंभ की। यह यात्रा अनवरत जारी है। साढ़े चौदह वर्ष की आयु से आज तक, एक ही दायित्व ने मेरे जीवन का एकमात्र उद्देश्य परिभाषित किया है: भारत माता की सेवा करना।

”इस कर्तव्य-पालन के दौरान अनेक बार उद्देश्य तथा आदर्शों के प्रति मेरी निष्ठा, ईमानदारी एवं प्रतिबध्दता की परीक्षा हुई है, खासतौर पर जब मुझे अपने जीवन में किसी विपति का सामना करना पड़ा। मैं विनम्रतापूर्वक और संतोष के साथ कह सकता हूं कि मैं कभी भी अपनी अंतरात्मा की दृष्टि में दोषी नहीं पाया गया। मैंने कई बार गलत निर्णय भी लिए। मुझसे अपने कार्यों के निष्पादन में कुछ गलतियां भी हुईं। लेकिन मैंने कभी भी अपनी उन्नति के लिए कोई तिकड़म की योजना नहीं अपनाई या अवसरवाद का सहारा नहीं लिया। न ही मैंने कभी व्यक्तिगत लाभ या स्वार्थ की पूर्ति के लिए अपने मूल सिध्दांतों से कोई समझौता किया। स्वाभिमान और आत्मसम्मान के लिए मैं अपने सिध्दांत पर अडिग रहा; मैंने राष्ट्र हित को ही  प्राथमिकता दी जबकि ऐसा करने में कभी-कभी स्पष्ट खतरे थे। चाहे मुझे आपातस्थिति में लंबे समय तक कारागार में रहना पड़ा हो या हवाला कांड में मिथ्या आरोपों का सामना करना पड़ा हो या अयोध्या आंदोलन में मुझ पर ‘कट्टर हिंदू‘ होने का लेबल लगाया गया हो अथवा पाकिस्तान की यात्रा के बाद मेरे बारे में अपनी वैचारिक प्रतिबध्दता से डिगने का गलत अर्थ लगाया गया हो, मैंने हमेशा अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनी और अपने सिध्दांतों पर दृढ़ता से खड़ा रहा हूं। आत्मविश्वास को बल देने के अलावा इसने मेरे जीवन को सुख दिया, और सार्थकता भी।”

जिस उपन्यास ने मुझे यह सोचने पर बाध्य किया उसमें दावा किया गया था कि एक मनुष्य जीवन में या तो सार्थकता या सुख ही पा सकता है।

दोनों को पाने का मेरा सौभाग्य रहा और वह भी भरपूर।

लालकृष्ण आडवाणी

नई दिल्ली

13 जून, 2012

Leave a Reply

Your email address will not be published.

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.