By MG Vaidya, RSS Ideologue
रोमन कॅथॉलिक चर्च खतरे में है, ऐसा लगता है. कैसा संकट? उत्तर है अस्तित्व का संकट. २०१२ के ईअर बुक के अनुसार दुनिया में करीब २२५ करोड़ लोग ईसाई धर्म को मानने वाले है, उनमें ७५ से ८० प्रतिशत रोमन कॅथॉलिक है.
इस चर्च के मुखिया को पोप कहते है. इस चर्च का अपना एक छोटा राज्य है. उस राज्य का नाम है ‘व्हॅटिकन’. वह इतना छोटा है कि उसकी जानकारी बहुत मनोरंजक लगती है. उसका क्षेत्रफल पूरा आधा किलोमीटर भी नहीं है. जनसंख्या एक हजार से भी कम. उसकी राजधानी है व्हॅटिकन सिटी. वह चारों ओर से इटाली की राजधानी रोम से घिरी है. लेकिन, उसका अपना रेल स्टेशन है. डाक सेवा है. स्वतंत्र मुद्रा है. रेडिओ स्टेशन भी है. इतना ही नहीं तो उनकी अपनी पुलीस और न्यायालय भी है. आज के पोप है बेनेडिक्ट १६ वे. इसका अर्थ इसके पूर्व बेनेडिक्ट नाम के १५ पोप हो चुके है. उनकी आयु आज ८५ वर्ष है. पोप बनने के पहले उनका नाम था जोसेफ राझिंगर.
एकसंध चर्च
एक जमाना ऐसा था कि, संपूर्ण ईसाई दुनिया पर पोप की अधिसत्ता थी. राजा कौन बनेगा, यह पोप बताते थे. राजा किसके साथ विवाह करें, तलाक ले या नहीं, यह भी पोप ही बताते थे. करीब डेढ हजार वर्ष इस प्रकार पोप की, धार्मिक और राजनीतिक इन दोनों क्षेत्रों में अधिसत्ता चलती रही. लेकिन १५ वी शताब्दी में जर्मनी में पैदा हुए मार्टिन ल्यूथर (सन् १४८३-१५४६) इस धर्मसुधारक ने पोप की अधिसत्ता को आव्हान दिया. उसने अपना एक पंथ भी स्थापन किया. उसका नाम है ‘प्रॉटेस्टंट’. ‘प्रोटेस्ट’ इस अंग्रेजी धातु का अर्थ ‘निषेध’ करना है. पोप की अधिसत्ता का जिस मार्टिन ल्यूथर के अनुयायीयों ने निषेध किया, वे सब ‘प्रॉटेस्टंट’ बने. मतलब ‘प्रॉटेस्टंट’ यह भी ईसाई धर्म का ही एक पंथ है. लेकिन इस पंथ के अनेक उपपंथ है. २००१ में प्रॉटेस्टंट चर्च के प्रतिनिधियों के साथ तत्कालीन सरसंघचालक श्री सुदर्शन जी की चर्चा, नागुपर के संघ कार्यालय में हुई थी, उस चर्चा में प्रॉटेस्टंटों के २७ उपपंथों के प्रतिनिधियों का समावेश था. प्रॉटेस्टंटों के अलावा, ‘ऑर्थोडॉक्स चर्च’ यह भी एक ईसाई उपपंथ है और वह भी पोप की अधिसत्ता नहीं मानता. लेकिन इन सब पोप विरोधी कहे या रोमन कॅथॉलिक से अलग कहे, ईसाईयों की संख्या २५ प्रतिशत से अधिक नहीं. रोमन कॅथॉलिक चर्च की यह विशेषता है कि वह पंथ इतने वर्ष बाद भी एकसंध है. धर्माचार्यों की (कार्डिनल) सभा पोप का चुनाव करती है और दुनिया के सब देशों के कॅथॉलिक उसकी सत्ता मान्य करते हैं.
निजि पत्रों की चोरी
१६ वे बेनेडिक्ट के संदर्भ में हाल ही में एक समाचार प्रकाशित हुआ है. वह उनके रसोइये से संबंधित है. इस रसोइये का नाम पावलो गॅब्रिएल है. उसके ऊपर आरोप है या कहे कि था, की उसने पोप महाशय के कुछ गोपनीय निजि पत्र चुराए और वह जियानलुगी नुझ्झी इस इटली के पत्रकार को दिये. पत्रकार नुझ्झी ने उन पत्रों के आधार पर ‘His Holiness Pope Benedict XVI’s Secret Papers’ इस शीर्षक की एक पुस्तक ही लिख डाली; और गत मई माह में उसका प्रकाशन भी किया. इससे सब तरफ खलबली मच गई. पोप की पुलीस ने इस मामले की खोज की और पोप के लिए छ: वर्षों से रसोइये का काम करने वाले पावलो गॅबिएल को पकड़ा. उसके विरुद्ध मुकद्दमा चलाया गया और उसे १८ माह के कारावास की सज़ा सुनाई गई. व्हेटिकन में अलग कारागृह न होने के कारण, गॅब्रिएल को उसके घर में ही बंद रखा गया.
चर्च में के लफड़े
नुझ्झी की पुस्तक में चर्च में के अंतर्गत लफड़ों और झगडों की भी जानकारी है. आर्थिक भ्रष्टाचार और समलिंगी व्यक्तियों के घृणास्पद लैंगिक आदतों का भी उसमें वर्णन है. स्वाभाविक ही यूरोप के समाचारपत्रों में नुझ्झी की इस पुस्तक को भरपूर प्रसिद्धि मिली. नुझ्झी ने, गॅब्रिएल का बचाव करने की भी कोशिश की; उसका कहना है कि, गॅब्रिएल ने ‘चुराये’ पत्रों में राज्य के व्यवहार या फौज की गोपनीय जानकारी नहीं है. उसका उद्देश्य अच्छा था. चर्च का व्यवहार पारदर्शक हो ऐसा उसे लगता था. उसने वहॉं जो अवांछनीय कारनामें देखें, उससे वह व्यथित हुआ; और चर्च का कारोबार दुरूस्त हो, धर्म संस्था के अनुरूप निर्मल पद्धति से चले, इसी उद्देश्य से, उसने उन पत्रों की छायाप्रत निकाली. गॅब्रिएल के वकील ने भी अपने मुवक्किल का बचाव करते समय जोर देकर कहा कि, उसने पत्र चुराये नहीं. केवल उनकी छायाप्रत बनाई और ऐसा करने में उसका उद्देश्य अच्छा था. इसलिए पोप उसे क्षमा करें. अब पोप १६ वे बेनेडिक्ट उसे क्षमा करते है या उर्वरित सज़ा भुगतने के लिए इटली के किसी कारागृह में भेजते है, इसकी ओर लोगों का ध्यान लगा है. गत जुलाई माह से गॅब्रिएल कैद में है.
‘सायनड’ का अधिवेशन
इस सारे काण्ड से पोप बेनेडिक्ट बहुत ही अस्वस्थ हुए. उन्होंने इसी अक्टूबर माह में चर्च के, धर्माचार्यों की एक सभा बुलाई. इस सभा को ‘सायनड’ कहते है. इस ‘सायनड’ में २६२ धर्माचार्य उपस्थित थे. उनमें कार्डिनल (मतलब पोप के दर्जे से कम लेकिन अन्य सब से श्रेष्ठ दर्जे के धर्माचार्य. ये धर्माचार्य ही पोप का चुनाव करते है), बिशप और प्रीस्ट (मतलब पुजारियों) का समावेश था. वे केवल यूरोप के ही नहीं थे, दूनिया भर से उन्हें बुलाया गया था. धर्माचार्यों की सभा तीन सप्ताह चलने की अपेक्षा है.
एक पहेली
इस सभा के आरंभ में पोप बेनेडिक्ट ने किया भाषण महत्त्व का है. लेकिन, अपने उद्घाटन का भाषण आरंभ करने के पूर्व पोप महाशय ने ‘डॉक्टर ऑफ द चर्च’ इस कॅथॉलिक चर्च की व्यवस्था में की सर्वोच्च पदवी से, इतिहास में हुए दो श्रेष्ठ धर्मोपदेशकों का गौरव किया. उनमें के एक थे १२ वी शति में हुए – मतलब करीब एक हजार वर्ष पूर्व हुए – जर्मन गूढवादी (मिस्टिक) सेंट हिल्डेगार्ड और दूसरे थे १६ वी शति के स्पॅनिश धर्मोपदेशक सेंट जॉन ऑफ् ऍव्हिला. चर्च के दो हजार वर्षों के इतिहास में आज तक केवल ३३ व्यक्तियों को ही इस सर्वश्रेष्ठ पदवी से नवाजा गया है. लेकिन बेनेडिक्ट महोदय ने इसी समय यह गौरव समर्पण का कार्यक्रम क्यों किया, यह एक पहेली है.
पोप की चिंता
इन धर्माचार्यों की सभा की अधिकृत जानकारी इतने जल्दी मिलने की संभावना नहीं है. यह लेख वाचकों तक पहुँचेगा तब भी शायद वह ‘सायनड’ समाप्त नहीं हुआ होगा. लेकिन अब तक जो जानकारी मिली है, उससे ऐसा लगता है कि, कॅथॉलिक चर्च को मानने वाले जो लोग दुनिया भर में फैले हैं, उनका वर्तन देखकर पोप महाशय अत्यंत उद्विग्न हुए है. उनका कहना है कि, यूरोप और अमेरिका के, मतलब मुख्यत: कॅनडा इस उत्तर अमेरिका के और दक्षिण अमेरिका के ब्राझील, चिली, पेरू, अर्जेंटिना आदि अधिकांश कॅथॉलिक देशों के, कॅथॉलिक लोग केवल कहने को ही कॅथॉलिक रहे हैं. वे नियमित रूप से रविवार को चर्च में भी नहीं जाते. अनेक चर्च की इमारतें खाली पड़ी है. वह बिक रही है; और उनकी दृष्टि से महत्त्व और चिंता की बात यह है कि यह खाली पड़े चर्चगृह मुसलमान खरीद रहे हैं और वहॉं अपनी मस्जिदें बना रहे हैं. इसलिए उनका आवाहन है कि, सब कॅथॉलिक उनके नियमित उपासना कांड का कड़ाई से पालन करे.
गत ११ अक्टूबर को, यह वर्ष सब लोग (अर्थात् ईसाई) ‘ईअर ऑफ द फेथ’ मतलब श्रद्धा का वर्ष माने, ऐसा आवाहन उन्होंने किया. पचास वर्ष पूर्व ११ अक्टूबर को ही मतलब १९६२ से १९६५ ‘दूसरी कॅथॉलिक कौन्सिल’ने जो निर्णय लिये थे, उस कारण कॅथॉलिक पंथ की पहचान ही बदल गई थी. और तब से इस पंथ के धर्मोपदेशक अधिक सक्रिय हो गए थे.
सेक्युलॅरिझम्
रोमन कॅथॉलिक चर्च दो बातों से खतरा अनुभव करता है. उनमें से एक है ‘सेक्युलॅरिझम्’ संबंधि ईसाई राष्ट्रों के शासकों की बढ़ती पसंद और दूसरी है इस्लाम का प्रसार. अधिकांश ईसाई राष्ट्रों के संविधान में ‘सेक्युलर’ शब्द का उल्लेख नहीं है. हमारे भारत के संविधान में भी पहले ‘सेक्युलर’ शब्द नहीं था. वह संविधान लागू होने के २६ वर्ष बाद अंतर्भूत किया गया. फिर भी प्रारंभ से ही हमारा राज्य सेक्युलर ही था. मतलब राज्य का अपना स्वयं का कोई भी संप्रदाय या रिलिजन नहीं था. सब प्रकार के पंथ, संप्रदाय, श्रद्धा, विश्वास मानने वालों को समान अधिकार थे. अमेरिका के संविधान में भी ‘सेक्युलर’ शब्द नहीं है. लेकिन अमेरिका की सियासी नीति ‘सेक्युलर’ मतलब सब पंथ-संप्रदायों को समान मानने की है. वहॉं १६ प्रतिशत कॅथॉलिक है. उनमें से कोई भी, राष्ट्रपति पद के लिए खड़ा हो सकता है. आज तक केवल एक ही कॅथॉलिक उस पद चुनकर आ सका और वह भी पूरे चार वर्ष टिक नहीं सका, यह बात अलग है. लेकिन कॅथॉलिकों पर वैसे कोई बंदी नहीं है. अनेक भारतीय मूल के लेकिन अमेरिका में जन्मे और वहीं की नागरिकता प्राप्त करने वाले लोग शासकीय पदों पर चुनकर आए हैं. आज के अमेरिका के राष्ट्रपति का मूल कुल अफ्रीका का है. इंग्लंड में भी, इंग्लंड का अधिकृत चर्च होने और राजा को ‘डिफेंडर ऑफ् द फेथ’ मतलब उस पंथ का संरक्षक किताब होने के बावजूद, वहॉं भी गैर ईसाईयों को, नागरिकता मिलती है और वे चुनाव भी लड़ सकते हैं.
इस सेक्युलर व्यवस्था के कारण पोप महाशय को चिंता होने का क्या कारण है? कॅथॉलिक चर्च का, मतलब उस संप्रदाय का, उपासना का, कर्मकांड का क्षेत्र अलग है. सरकार उसमें अड़ंगा न डाले, इतना काफी है. लेकिन, शायद इतने से पोप महोदय संतुष्ट नहीं है. कारण, इतिहास में ईसाई धर्म के प्रसार में शासकों का बहुत बड़ा योगदान मिला है. रोमन सम्राटों ने ईसाई धर्म स्वीकार नहीं किया होता और उसके प्रसार के लिए अपनी राज्यशक्ति का प्रयोग नहीं किया होता, तो ईसाई धर्म का इतना प्रसार हो ही नहीं पाता. इस कारण ‘सेक्युलरिझम्’ से पोप महाशय का चिंतित होना स्वाभाविक ही है. लेकिन भविष्य में ईसाई धर्म को मानने वाले शासक – फिर वे किसी भी पंथ के हो, अपने राज्य की शक्ति का प्रयोग धर्मप्रसार के लिए करेंगे, ऐसी संभावना नहीं है. ऐसा भी एक समय था, जब ईसाई साम्राज्यवादी देश, ईसाई धर्म के प्रसार के लिए अलग-अलग चर्च को भरपूर धन देते थे. उद्देश्य यह कि, उन देशों में, उनके साम्राज्य से एकनिष्ठ रहने वाले स्थानीय लोगों की संख्या में वृद्धि हो. आज भी, वे मिशनरी संस्थाओं को धन की मदद करते ही होगे. लेकिन खुलकर नहीं. इसलिए पोप महाशय, और उनके सहयोगी, ईसाई सरकारे उन्हें मदद करेंगे इस भरोसे न रहे तो ठीक होगा. आवश्यकता इस बात की भी है कि ईसाई धर्मोपदेशक सेक्युलॅरिझम् का सही अर्थ अपने लोगों को समझाए और राज्य शासन को, धर्म के क्षेत्र में हस्तक्षेप न करें, ऐसी चेतावनी दे. धर्म-संप्रदाय का प्रचार-प्रसार धर्मसंस्थाओं ने अपने बल पर ही करना चाहिए और वह भी जनता को अपने धर्म के तत्त्व और समयानुसार उनका औचित्य समझाकर.
इस्लाम का खतरा
दूसरा सही में खतरा है इस्लाम का. वह केवल ईसाई चर्च को ही नहीं, ईसाई राज्यों को भी हो सकता है. कारण इस्लाम के अनुयायी आक्रमक होते है. आज वे आपसी झगड़ों में ही उलझे है लेकिन, वहॉं भी मूलतत्त्ववादी (फंडामेंटालिस्ट) मुसलमान ही भारी पड़ रहे है. मुसलमान अपनी जनसंख्या बढ़ाने में भी पारंगत है. प्रो. सॅम्युएल हंटिंग्डन ने भी अपने ‘क्लॅश ऑफ सिव्हिलायझेशन्स’ इस प्रसिद्ध पुस्तक में ईसाई और मुस्लिम राष्ट्रों के बीच संघर्ष की संभावना व्यक्त की है. यह संघर्ष, इन दो धर्मों के आधारभूत तत्त्वों के कारण अटल दिखता है, ऐसा उसका कहना है. (देखें पृष्ठ २०९ से २१८) मुझे ऐसी जानकारी मिली है कि, इस ‘सायनड’में ईसाई धर्म को इस्लाम के आक्रमक अनुयायियों की ओर से होने वाले संभावित खतरे की विस्तार से चर्चा हुई है.
इसलिए रोमन कॅथॉलिक चर्च ने इस्लाम का प्रसार रोकने के लिए अपनी शक्ति खर्च करनी चाहिए. विद्यमान पोप महाशय के पूर्वाधिकारी इस शताब्दी के प्रारंभ में भारत में भी आये थे और उन्होंने यह सहस्रक, एशिया महाद्वीप को ईसाई बनाने के लिए निश्चित करें, ऐसी घोषणा की थी. एशिया महाद्वीप में वे किसे ईसाई बना सकेंगे? केवल हिंदू और बौद्धों को ही! मुसलमानों को हाथ लगाना तो दूर की बात है, उनकी बस्ती में पादरी घूस भी नहीं सकेंगे. पोप महाशय ने अपने भाषण में चर्च के बायबल पर की श्रद्धा बढ़ाने के कार्य को पुन: उत्साह संपन्न करने की (Reinvigorate the Church’s Evengelisation Mission) जो आवश्यकता प्रतिपादित की है, उसके बारे में विवाद का कारण ही नहीं. लेकिन इस उत्साह की दिशा (१) स्वयं को ईसाई मानने वाले और येशु को माननेवाले लोगों में बायबल, येशु और चर्च के बारे में आस्था निर्माण करने की दिशा में होनी चाहिए, और (२) इस्लाम का जो इतिहाससिद्ध आक्रमक और विस्तारवादी स्वभाव है, उससे ईसाई जनता को कैसे बचाए इस ओर में होनी चाहिए.
चर्च के नवोत्साह की दिशा
ऐसी जानकारी है कि, अब हर महाद्वीप में ईसाई धर्माचार्यों की सभाए होगी. एशिया महाद्वीप के धर्माचार्यों की सभा आगामी नवंबर के पहले सप्ताह में आयोजित है. उस सभा की दिशा इन दो बातों की ओर ही होनी चाहिए. निरुपद्रवी, आत्मसंतुष्ट हिंदू-बौद्धों की और उस उत्साह की दिशा रहने का कारण नहीं. ईसाई राष्ट्रों को उनकी ओर से कतई खतरा नहीं. खतरा कट्टर मुस्लिम राष्ट्रों से ही हो सकता है, और यदि तीसरा महायुद्ध हुआ तो वह इन दो धर्मों या सभ्यताओं के अनुयायियों में ही होगा, यह सब लोग पक्का ध्यान में रखें. प्रो. हंटिंग्डन ने भी अपने पुस्तक में यहीं भविष्य व्यक्त किया है. रोमन कॅथॉलिक चर्च ने अपनी सारी शक्ति इसी दिशा में लगानी चाहिए.
– मा. गो. वैद्य