श्रीमद्भगवद्गीता की सार्वकालिक यथार्थता
भाष्य ४ जनवरी के लिये
श्रीमद्भगवद्गीता हिंसा और आतंकवाद को प्रेरणा देनेवाला ग्रंथ है, इसलिए उसपर बंदी लगाए, ऐसी मांग करनेवाली याचिका खारीज की गई, यह बहुत अच्छा हुआ| प्रचंड, पूर्व-पश्चिम लंबाई करीब दस हजार किलोमीटर! बाल्टिक सागर से पॅसिफिक महासागर तक! और उत्तर-दक्षिण अंतर करीब चार हजार आठ सौ किलोमीटर! यह प्रचंड रूस एशिया और यूरोप इन दो महाद्वीपों में फैला! शायद, दुनिया में एकमात्र देश होगा! उसके पूर्व की ओर, एशिया महाद्वीप में सैबेरिया यह एक प्रान्त है| वह भी बहुत विस्तीर्ण| अर्थात् केवल क्षेत्रफल की दृष्टि से| वहॉं मनुष्यों से बर्फ ही अधिक है| इस सैबेरिया के बर्फिले रेगिस्थान में तोम्स्क नाम का एक शहर है| वहॉं के कनिष्ठ न्यायालय में यह मुकद्दमा चला| और उसने हमारे देश में खलबली मचा दी|
चर्च का हाथ
मेरी पहली प्रतिक्रिया इस मामले की ओर दुर्लक्ष करने की थी| दस-बारह दिनों पूर्व ‘स्टार माझा’ दूरदर्शन वाहिनी की एक टीम, कुछ मुद्दों पर मेरा मत जानने घर आई थी| उस टीम के प्रमुख ने, मुझे, अनेक प्रश्नों के साथ यह भगवद्गीता पर बंदी डालने की मांग के बारे में भी प्रश्न पूछॉं था| मैंने कहा, इस मांगका कारण केवल अज्ञान है; और उसकी उपेक्षा ही करना योग्य होगा| लेकिन गत रविवार, ब्लॉग पर मेरा भाष्य पढ़ने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक ज्येष्ठ प्रचारक का अभिप्राय आया कि, ‘गीता प्रकरण पर’ मेरा भाष्य आएगा, ऐसी उनकी अपेक्षा थी| फिर मुझे भी लगा कि, इस विषय पर लिखना चाहिए| मन का ऐसा निश्चय हो ही रहा था कि मुकद्दमें के फैसले का आनंददायक समाचार आया| और इस विषय पर लिखना चाहिए, ऐसा लगा| साथ ही यह भी पता चला कि, तोम्स्क मामले के पीछे रूस के ऑर्थोडॉक्स चर्च का हाथ है|
आर्थोडॉक्स चर्च
ईसाई धर्म के अनेक संप्रदाय और पंथ है| रोमन कॅथॉलिक यह सबसे बड़ा पंथ है| प्रॉटेस्टंट उससे कम लोकसंख्या का| और, उसके उपपंथ भी अनेक है| ऑर्थोडॉक्स चर्च यह भी एक पंथ ही है| ‘ऑर्थोडॉक्स’ मतलब पुराना, मूलगामी, परिवर्तनविरोधी| इस चर्च का प्रभाव ग्रीस और अन्य कुछ देशों में है| रूस में इस पंथ को माननेवालों की संख्या करीब बीस प्रतिशत है| १९१७ में हुई कम्युनिस्ट क्रांति के बाद, इस चर्च पर, सरकार ने बंदी लगाई थी| कारण, कम्युनिस्टों का धर्मसंप्रदायों को विरोध था| सत्तर वर्षों से अधिक समय तक यह बंदी कायम थी| ऐसा लगता है कि अब वह हटाई गई है| लोग खुले आम चर्च में जाने लगे है| इस पुरानी विचारधारा के कुछ लोगों को भगवद्गीता अच्छी ना लगी हो, तो इसमें आश्चर्य नहीं| शायद रूस में भगवद्गीता को दिनोंदिन बढ़ता भक्तसंघ प्राप्त हो रहा है, इस कारण भी चर्च में के कुछ अतिवादियों का माथा ठनका होगा|
रूस में प्रभाव
आप कहेगे कि रूस में! और भगवद्गीता का प्रभाव! हॉं, यह आश्चर्यजनक पर सत्य है| यह परिवर्तन ‘हरे कृष्ण’ इस नाम से जाने जानेवाले पंथ के अनुयायीयों ने किया है| यह पंथ सर्वत्र ‘इस्कॉन’ के नाम से जाना जाता है| ‘इस्कॉन’ मतलब ‘इंटरनॅशनल सोसायटी फॉर कृष्ण कॉन्शस्नेस्’ -अर्थ स्पष्ट है – ‘भगवान् कृष्ण के बारे में जागृति करने के लिए बनी अंतर्राष्ट्रीय समिति’| इस समिति ने भगवान् कृष्ण और उसके तत्त्वज्ञान का रूसीयों को परिचय कराने की योजना बनाई है| वैसे इसका आरंभ तो १९७१ में ही हुआ था| उस समय कम्युनिस्ट शासन था| लेओनिद ब्रेझनेव्ह यह तानाशाह राज कर रहा था| १९७१ में इस ‘इस्कॉन’ के संस्थापक भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभूपाद का रूस की राजधानी – मॉस्को में – पॉंच दिन मुक्काम था| प्रोफेसर कोटोवस्की इस हिंदू धर्म का अभ्यास करनेवाले विद्वान से मिलने वे इतने दूर आए थे| वहॉं उनका कुछ युवकों के साथ संवाद हुआ| उसका परिणाम यह है कि आज रूस के राष्ट्रमंडल में के देशों में ५५ हजार वैष्णव है| मॉस्को में इस्कॉन का मंदिर है| वहॉं रोज एक हजार भक्त आते है| विशेष अवसरों पर तो यह आँकडा दस हजार से भी अधिक होता है| गोर्बाचेव रूस के राष्ट्रपति बनने के बाद, १९८८ में, इस ‘इस्कॉन’ को अधिकृत मान्यता मिली| अब मास्को में एक भव्य कृष्ण मंदिर बनाया जा रहा है| उसका नाम होगा ‘मॉस्को वेदिक सेंटर’| भक्तिविज्ञान गोस्वामी उस केन्द्र के प्रमुख है| नाम पढ़कर गडबडाने का कारण नहीं| वे रूसी है; और अभी भारत में आए है| मॉस्को में एक पुराना कृष्ण मंदिर था| वह मॉस्को नगर परिषद की आज्ञा से गिराया गया| उसके मुआवजे में इस्कॉन को पॉंच एकड जमीन मिली है, वहॉं भव्य ‘वेदिक सेंटर’ बन रहा है| २०१२ के अंत तक वह पूर्णहोगा| आज एक छोटी जगह पर अस्थाई मंदिर खड़ा है|
सेक्युलॅरिस्ट भी शामिल
रूस के एक न्यायालय में यह मुकद्दमा चलने का समाचार आते ही, भारत में उसपर प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक ही था| भारत सरकार ने भी इसमें ध्यान दिया और संपूर्ण भारत की भावना, रूस के राजदूत को बुलाकर, उसे बताई| संघ, विहिंप, आदि हिंदुत्त्वनिष्ठ संगठनों ने मुकद्दमा दायर करने की कृति का निषेध करना स्वाभाविक ही था| लेकिन संसद में भी इस बारे आवाज उठी; और आश्चर्य यह कि लालूप्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव इन छद्म सेक्युलॅरवादियों के अर्क ने भी इस कृति का निषेध किया| हम यहीं समझे कि, भगवद्गीता का कर्ता यादवकुलोत्पन्न था इस कारण ही उनका गीता-प्रेम नहीं उमडा, उन्हें भगवद्गीता की महती समझ आई है, इसलिए ही उन्होंने रूस में की घटना का तीव्र निषेध किया|
इस स्थानपर इन तथाकथित सेक्युलॅरवादियों का वर्तन कैसा रहता है, इसका एक नमुना दिखाना उचित होगा| मध्य प्रदेश की भाजपा की सरकार ने, विद्यालयों के पाठ्यक्रम में भगवद्गीता के कुछ श्लोकों को अंतर्भाव किया है| इस बारे में घोषणा होते ही ‘भगवाकरण’, ‘सांप्रदायिकता’ ‘आरएसएस का अजेंडा’ आदि नारे लगाकर सेक्युलॅरिस्टों ने छाती पीट ली थी| इन लोगों ने यह भी ध्यान में नहीं लिया कि, महात्मा गांधी, आचार्य विनोबा भावे जैसे, जिन्हें वे पूज्य मानते है गीता की शिक्षा से अनुप्राणित हुए थे| विनोबा की ‘गीताई’ और ‘गीताई चिंतनिका’ सब के एक बार पढ़नी ही चाहिए| क्या गांधी-विनोबा सांप्रदायिक थे? ऐसी वृत्ति के लोगों ने भी भगवद्गीता पर की संभाव्य बंदी का निषेध किया, यह विशेष है|
सार्वकालिक, सार्वदेशिक
वस्तुत:, गीता सांप्रदायिक ग्रंथ है ही नहीं| वह भारत में निर्माण हुआ और हिंदू जिसे पूर्णावतार मानते है उस भगवान् श्रीकृष्ण के मुख से निकला होने के बावजूद, वह संपूर्ण मानवजाति के लिए है| देश और काल की मर्यादा उसे बांध नहीं सकती| गीता का उपदेश सार्वकालिक और सार्वदेशिक है| गीता ने जितनी स्वतंत्रता दी है उतनी अन्य किसी भी धर्मग्रंथ ने नहीं दी| गीता, अपने और पराए ऐसा भेद करती ही नहीं| गीता के ९ वे अध्याय में का २३ वा श्लोक कहता है ‘‘जो अन्य देवताओं के भक्त, श्रद्धापूर्वक, उन उन देवताओं का पूजन करते है, वे भी अज्ञानवश ही सही, मुझे ही पूजते है|’’ मूल शब्द है ‘‘यऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता: | तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥”‘अवधि’ इस शब्द का अर्थ आद्य शंकराचार्य ने ‘अज्ञान’ बताया है| यही विचार ७ वे अध्याय के २१ वे श्लोक में भी व्यक्त हुआ है| वह श्लोक इस प्रकार है ‘‘यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति | तस्म तस्याचलां श्रद्धां तामेव विद्याम्यहम् ॥” मतलब भक्त, श्रद्धापूर्वक, जिस जिस देवतास्वरूप का पूजन करना चाहता है, उसकी उसकी श्रद्धा मैं अचल करता हूँ| यहॉं मोमीन-काफीर, या ईसाई-हीदन ऐसा भेद नहीं| ‘सब मेरे’ – ऐसी संपूर्ण विश्व को अपने भीतर समाविष्ट करनेवाली अलौकिक उदारता है|
राष्ट्रीय ग्रंथ
भगवद्गीता कार्यप्रवण करनेवाली है| मोहवश हताश हुए एक वीर पुरुष को कर्तव्यप्रेरित करने के लिए ही उसका अवतार है| स्वयं का उदाहरण देकर भगवान् कृष्ण कहते है कि, ‘मुझे नहीं मिला ऐसा कुछ भी नहीं है| जो प्राप्त करना है, ऐसा भी कुछ नहीं| फिर भी मैं कार्यरत हूँ| ज्ञानी मनुष्य ने उसके हिस्से आया कर्म करना ही चाहिए| कारण लोकस्थिति का संधारण होना ही चाहिए|’ ज्ञानदेव के शब्द है ‘‘हे सकळ लोकसंस्था | रक्षणीय गा सर्वथा ॥ तात्पर्य यह कि, आज भी और आगे भी भगवद्गीता यर्थाथ रहनेवाली है| सब जननेताओं को, फिर वह किसी भी कार्यक्षेत्र में काम करनेवाले हो, उसका चिरंनत मार्गदर्शन है| ऐसे इस अद्वितीय ग्रंथ को वस्तुत: हमारे मतलब सब भारतीयों के राष्ट्रीय ग्रंथ की मान्यता मिलनी चाहिए| उत्तर प्रदेश के उच्च न्यायालय के एक न्यायमूर्ति ने भी ऐसी सूचना की है| लेकिन सेक्युलॅरिझम् के विकृत जाल में फंसे आज के राजकर्ता यह करने का धाडस करेगे, ऐसी आशा करने में कोई अर्थ नहीं और सरकारी मान्यता पर श्रीमद्भगवद्गीता का सामर्थ्य भी अवलंबित नहीं|
– मा. गो. वैद्य