भोपाल,23 फरवरी: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा. मोहन राव भागवत ने चार दिवसीय संघ की क्षेत्रीय बैठक के समापन उद्बोधन में समता एवं शारीरिक कार्यक्रम का विशेष उल्लेख करते हुए उस पर संतोष व्यक्त किया और कहा कि यदि संतोष हो जाये तो उसका अर्थ होता है विकास पर विराम. उन्होंने कहा कि अच्छा होने की कोई सीमा रेखा नहीं होती. अच्छे से और अच्छा कैसे हो इसका सतत विचार करना चाहिये. किसी व्यक्ति, संस्था अथवा देश की सफलता के लिये भी यही दृष्टि आवश्यक है.
20 फरवरी से प्रारम्भ हुई संघ की क्षेत्रीय बैठक के समापन पर भोपाल के प्रमुख मार्गों से मध्यभारत के चयनित स्वयंसेवकों का पथ संचलन हुआ. स्थान-स्थान पर नागरिकों ने स्वयंसेवकों पर पुष्प-वृष्टि कर उनका स्वागत किया. स्वागतकर्ताओं में मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के कार्यकर्ता भी सम्मिलित थे. संचलन के उपरांत स्थानीय मॉडल स्कूल प्रांगण में स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए परमपूज्य सरसंघचालक ने कहा कि शारीरिक कार्यक्रम कोई शक्ति प्रदर्शन नहीं है, आत्म दर्शन है. हिन्दू समाज को शक्ति संपन्न बनाने के लिये आवश्यक गुण-संपदा इन्हीं कार्यक्रमों से प्राप्त होती है. शरीर को बनाने से ही मन बनता है. कर्म शरीर करता है, भाव मन और बुद्धि का बनता है.
उन्होंने कहा कि चीन के नेता माओ ने भी समाज को शारीरिक कार्यक्रमों के माध्यम से ही क्रान्ति के लिये तैयार किया था. बर्फीली ठण्ड में खुले बदन घूमने और चिलचिलाती धूप में अंगीठी तापने को युवाओं को प्रेरित किया था. माओ के इस कथन से उन्होंने सहमति व्यक्त की कि सब बातें जड़ हैं, इसलिये शरीर ठीक करो तो सब ठीक हो जायेगा.
सरसंघचालक ने कहा कि हमारे यहाँ भी विगत 88 वर्षों में इन शारीरिक कार्यक्रमों के माध्यम से जो स्वयंसेवक खड़े हुये, उनसे आज समाज आशान्वित है. हमने स्वयं को बनाया, दूसरों को उपदेश नहीं दिये. घोष वादन अच्छा कर सकें इसलिये हमारे एक वरिष्ठ स्वयंसेवक ने आश्रम में जाकर प्राणायाम का अभ्यास किया.84 वर्ष की आयु में वे चार-चार घंटे शंख-वादन कर लेते थे. स्वयंसेवक जी-जान लगाकर प्रयास करता है और उसे कोई धन्यवाद भी नहीं कहता, उसे अपेक्षा भी नहीं होती. स्वयंसेवक जो करता है, देश बनाने के लिये करता है.
उन्होंने कहा कि स्थलांतर युग यानी बिना हथियार से शत्रु सेना का मुकाबला करेंगे, कहकर मखौल करने वाले लोग, आज इन कार्यक्रमों से बने स्वयंसेवकों को देखकर विस्मित होते हैं. नेता के अनुसार चलने वाले अनुयायी भी आवश्यक हैं. इसे सिद्ध करने के लिये उन्होंने प्रश्न किया कि रणभूमि में तानाजी मालुसरे की मृत्यु के बाद यदि अनुयायियों में शौर्य नहीं होता तो क्या कोंडाना का युद्ध जीता जा सकता था ? डा. भागवत ने कहा कि नेता और जनता दोनों के मन में निस्वार्थ भाव से, बिना किसी भेदभाव के, देश को उठाने का भाव हो, तो ही देश का भाग्य बदल सकता है. इसीलिये संघ ने शाखा के माध्यम से घर घर, गाँव गाँव में शुद्ध चरित्र वाले, सबको साथ लेकर चलने वाले निस्वार्थ लोग खड़े करने का कार्य अपने हाथ में लिया है. संघ का पूरा विश्वास है कि समाज का चरित्र बदलेगा तो ही देश का भाग्य बदलेगा.
सरसंघचालक ने परामर्श दिया कि राष्ट्र उन्नत हो, दुनिया सुखी हो इसके लिये हर घर, गाँव शहर में जनमानस को सुचारित्र्य-संपन्न बनाने का कार्य सतत, निरंतर, प्रखर, उत्कट होना चाहिये. उन्होंने उदाहरण दिया कि जैसे लोटा रोज मांजा जाता है, उसी प्रकार स्वयं को भी रोज मांजना आवश्यक है.“यह नहीं मानना चाहिये कि मैं कभी मैला नहीं हो सकता. यह सब कार्यक्रम केवल कार्य के लिये. कार्य भी यंत्रवत नहीं श्रद्धा व भावना के साथ”. उन्होंने भाव की महत्ता समझाने के लिये एक दृष्टांत देकर स्पष्ट किया कि वजन भाव का होता है. कृष्ण की पत्नियों में रुक्मिणी पटरानी थीं. सत्यभामा को इर्ष्या हुई. नारद जी ने सुझाव दिया कि कृष्ण का तुलादान करो. न केवल सत्यभामा बल्कि सातों रानियों के सारे अलंकरण भी कृष्ण का पलड़ा नहीं उठा पाये. अंत में रुक्मिणी ने जब तुलसीदल डाला तब कृष्ण का पलड़ा उठा.
उन्होंने कहा कि जनता के नेता और सरकार परिवर्तन के प्रयोग इसलिये असफल रहे क्योंकि वहां परिश्रम और प्रामाणिकता का अभाव था. भाव को उत्कट बनायेंगे तो परिश्रम अधिक होगा तथा पूर्णता की मर्यादा को हाथ लगा सकेंगे. राष्ट्र को परम वैभव तक ले जाने के अपने स्वप्न को इसी जीवन में, इसी शरीर से पूर्ण कर सकेंगे