KS Sudarshan, RSS Former Sarasanghachalak at ABPS Baitak at Puttur Karnataka in 2011

शनिवार 15 सितंबर 2012 को भूतपूर्व सरसंघचालक श्री सुदर्शन जी का रायपुर में निधन हुआ. कुप्पहळ्ळी सीतारामय्या सुदर्शन यह उनका पूरा नाम. वे जन्म से मराठी भाषी होते, तो यही नाम सुदर्शन सीतारामय्या कुप्पहळ्ळीकर होता. उनका मूल गॉंव कर्नाटक में कुपहळ्ळी. सीतारामय्या उनके पिताजी.

KS Sudarshan, RSS Former Sarasanghachalak at ABPS Baitak at Puttur Karnataka in 2011
सार्थकता और धन्यता
१८ जून १९३१ यह उनका जन्म दिन और १५ सितंबर २०१२ उनका मृत्यु दिन. मतलब उनकी आयु ८१ वर्ष थी. इस कारण, उनका अकाल निधन हुआ ऐसा नहीं कहा जा सकता. लेकिन कौन कितने दिन जीवित रहा, इसकी अपेक्षा कैसे जीया, इसका महत्त्व होता है. अनेक महापुरुषों ने तो बहुत ही जल्दी अपनी जीवन यात्रा समाप्त की है. आद्य शंकराचार्य, संत ज्ञानेश्‍वर, स्वामी विवेकानंद जैसे उनमें के लक्षणीय नाम हैं. एक पुरानी लोकोक्ति है; जो जीवन का मर्म बताती है. ‘‘विना दैन्येन जीवनम्,अनायासेन मरणम्’’ लाचारी से मुक्त जीना और किसे भी कष्ट दिए बिना, मतलब स्वयं भी कष्ट न सहते हुए, मृत्यु को गले लगाने में जीवन की सार्थकता और मृत्यु की भी धन्यता है. सुदर्शन जी का जीवन इस जीवन सार्थकता और मरण धन्यता का उदाहरण है.
स्पृहणीय मृत्यु
लाचारी मुक्त जीवन जीना, यह काफी हद तक हमारे हाथों में है. हम निश्‍चय कर सकते है कि, मैं इसी प्रकार गर्दन उठाकर जीऊँगा. संकट के पर्वत भी खड़े हो तो परवाह नहीं. अनेकों ने ऐसा निश्‍चित कर जीवन जीया है. लेकिन मरण? वह कहॉं हमारे हाथ में होता है? लेकिन सुदर्शन जी ने ऐसा मरण स्वीकारा कि मानों उन्होंने उसे विशिष्ट समय आमंत्रित किया हो! प्रात: पॉंच-साडेपॉंच बजे उठकर घूमने जाना यह उनका नित्यक्रम था. करीब एक घंटा घूमकर आने के बाद वे प्राणायामादि आसन करते थे. १५ सितंबर को भी वे घूमने गये थे. करीब ६.३० बजे उन्होंने प्राणायाम आरंभ किया होगा; और ६.४० को उनकी मृत्यु हुई होगी. उनकी मृत्यु सही में स्पृहणीय थी.
संघ-शरण जीवन
सुदर्शन जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे. ‘प्रचारक’ शब्द का अर्थ, औरों को स्पष्ट कर बताना कठिन होता है, ऐसा मेरा अनुभव है. मैं संघ का प्रवक्ता था, तब अनेक विदेशी पत्रकार मुझे उस शब्द का निश्‍चित अर्थ पूछते थे. मैं वह बता नहीं पाता था. मैं वर्णन करता था. वह पूर्णकालिक होता है. अविवाहित रहता है. उसे कोई मानधन नहीं मिलता; और जहॉं, जो करने के लिए कहा जाता है, वहॉं,उसे वह काम करना पड़ता है. ऐसा अर्थ मैं बताता था. सही में ‘प्रचारक’ शब्द के इतने अर्थायाम है. सुदर्शन जी प्रचारक थे. वे सुविद्य थे. करीब ५७-५८ वर्ष पूर्व उन्होंने बी. ई. की परीक्षा उत्तीर्ण की थी. वह भी ‘टेलिकम्युनिकेशन्स’ मतलब दूरसंचार, इस, उस समय के नए विषय में. अच्छे वेतन और सम्मान की नौकरी, उन्हें सहज मिल सकती थी. लेकिन सुदर्शन जी उस रास्ते जाने वाले नहीं थे. उस रास्ते जाना ही नहीं और अपना संपूर्ण जीवन संघ समर्पित करना, यह उन्होंने पहले ही तय किया होगा. इसलिए वे‘प्रचारक’ बने. संघ की दृष्टि से इसमें कोई अनोखी बात नहीं. आज भी संघ के अनेक प्रचारक उच्च पदवी विभूषित है. अनेक प्रचारक पीएच. डी. है. मेरे जानकारी के एक प्रचारक का संशोधन आण्विक और रसायन शास्त्र से संबंधित है. कुछ एम. बी. ए. है. एमबीबीएस है. बी. ई. और एम. ई. भी है. और अचरज तो यह है कि, इतनी महान् अर्हता प्राप्त इन लोगों को हम कुछ अद्वितीय अथवा अभूतपूर्व कर रहे है, ऐसा लगता ही नहीं; और कोई बताएगा नहीं तो औरों को भी यह पता नहीं चलेगा. प्रचारक बनकर सुदर्शन जी ने अपने जीवन का एक मार्ग अपनाया. वह, संघ-शरण जीवन का, मतलब, समाज-शरण जीवन का, मतलब, राष्ट्र-शरण जीवन का मार्ग था. उस मार्ग पर वे अंतिम सॉंस तक चलते रहे.
प्रज्ञाप्रवाहके जनक
संघ की कार्यपद्धति की कुछ विशेषताएँ हैं, उनमें शारीरिक और बौद्धिक इन दो विधाओं का अंतर्भाव है. सुदर्शन जी इन दोनों विधाओं में पारंगत थे. अनेक वर्ष, तृतीय वर्ष संघ शिक्षा वर्गों में उन्होंने शिक्षक के रूप में काम किया है. वे अखिल भारतीय शारीरिक शिक्षा प्रमुख भी थे. सरसंघचालक बनने के बाद भी,वे जब संघ शिक्षा वर्ग के मैदान पर उपस्थित रहते, तब विशिष्ट कठिन प्रयोग स्वयं कर दिखाने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता. वे उसका आनंद भी लेते थे. उस थोडे समय के लिए वे सरसंघचालक है, यह भूलकर एक गणशिक्षक बन जाते. जो बात शारीरिक विधा में वहीं बौद्धिक विधा में भी. वे अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख भी बने. उसी समय, ‘प्रज्ञाप्रवाह’ के क्रियाकलापों को आकार मिला और उसमें अनुशासन भी आया. विविध प्रान्तों में बौद्धिक चिंतन का काम अलग-अलग नामों से चलता था. आज भी चलता होगा. प्रतिदिन की शाखा से उसका संबंध नहीं रहता था. लेकिन, राष्ट्र, राज्य, धर्म, संस्कृति,साम्यवाद, समाजवाद, राष्ट्रवाद इत्यादि मौलिक अवधारणाओं के संबंध में जो प्रचलित विचार है,उनका मूलगामी परामर्श लेकर इन संकल्पनाओं का सही अर्थ प्रतिपादन करना, यह इस बौद्धिक क्रियाकलापों का उद्दिष्ट होता था. उसी प्रकार, तत्कालिक प्रचलित विषयों का भी परामर्श इस कार्यक्रम में लिया जाता था. ‘प्रज्ञाप्रवाह’ इन सब को आश्रय देने वाला, उसे छाया देने वाला, एक विशेष छाता थाऔर इस छाता के मार्गदर्शक थे सुदर्शन जी.
सरसंघचालक की नियुक्ति
प्रथम छत्तीसगढ़ में, फिर मध्य भारत में प्रान्त प्रचारक इस नाते, उसके बाद असम, बंगाल क्षेत्र में क्षेत्र प्रचारक इस नाते, अनुभवों से समृद्ध होकर, वे संघ के सहसरकार्यवाह बने; और सन् २००० में सरसंघचालक इस सर्वोच्च पद पर अधिष्ठित हुए.
संघ के संविधान के अनुसार, सरसंघचालक की नियुक्ति होती है. यह नियुक्ति निवर्तमान सरसंघचालक करते है. उस नियुक्ति के पूर्व, कुछ ज्येष्ठ सहयोगियों के साथ वे विचार विनिमय करते है. आद्य सरसंघचालक डॉ. के. ब. हेडगेवार जी ने श्री मा. स. गोळवलकर उपाख्य गुरुजी की नियुक्ति की थी. डॉक्टर के एक पुराने सहयोगी श्री आप्पाजी जोशी ने, अपने एक लेख में, इस बारे में हेडगेवार जी ने उन्हें पूछा था, ऐसा लिखा है. १९३९ में, संघ की कार्यपद्धति का विचार करने के लिए, वर्धा जिले के सिंदी गॉंव में, तत्कालीन प्रमुख संघ कार्यकर्ताओं की जो बैठक हुई थी, उसमें हेडगेवार जी ने आप्पाजी से पूछा था. श्री गुरुजी ने उनका उत्तराधिकारी निश्‍चित करते समय किसके साथ विचार विनिमय किया था यह मुझे पता नहीं. लेकिन श्री बाळासाहब देवरस की नियुक्ति करने का पत्र उन्होंने लिखकर रखा था; और वह तत्कालिन महाराष्ट्र प्रान्त संघचालक श्री ब. ना. भिडे ने पढ़कर सुनाया था. यह मेरा भाग्य है कि, उनके बाद के तीनों सरसंघचालक मतलब श्री बाळासाहब देवरस जी, प्रो. राजेन्द्र सिंह जी और श्री सुदर्शन जी ने इन नियुक्तियों के संदर्भ में मेरा मत भी जान लिया था. अर्थात्, अकेले मेरा ही नहीं. अनेकों का. सुदर्शन जी ने तो २०-२५ लोगों से परामर्श किया होगा. हेडगेवार जी के मृत्यु के बाद गुरुजी की घोषणा हुई. गुरुजी के मृत्यु के बाद बाळासाहब की नियुक्ति का पत्र पढ़ा गया. लेकिन बाद के तीनों सरसंघचालकों ने उनके जीवित रहते ही अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति घोषित की. १९४० से मतलब करीब ७५ वर्षों से यह क्रम बिल्कुल सही तरीके से चल रहा है. न कहीं विवाद न मतभेद. यहीं संघ का संघत्व है. इसका अर्थ विशिष्ट पद के लिए एक ही व्यक्ति योग्य रहती है, ऐसा मानने का कारण नहीं. अंत में, कोई भी नियुक्ति व्यवस्था का भाग होती है. लेकिन पद के लिए योग्यता होनी ही चाहिए. १९७२ में श्री गुरुजी पर कर्क रोग की शस्त्रक्रिया होने के बाद, एक दिन एक विदेशी महिला पत्रकार ने,मुझे पूछा था (उस समय मैं तरुण भारत का मुख्य संपादक था)  Who after Golwalkar? मैंने कहा,ऐसे आधा दर्जन लोग तो होगे ही! उसे आश्‍चर्य हुआ. वह बोली, ‘‘हमें वह नाम मालूम नहीं.’’ मैंने बताया, ‘‘तुम्हे मालूम होने का कारण नहीं. हमें मालूम है.’’
निर्मल और निर्भय
सन् २००० में तत्कालीन सरसंघचालक प्रो. राजेन्द्रसिंह जी ने सुदर्शन जी की सरसंघचालक पद पर नियुक्ति की. ९ वर्ष वे उस पद पर रहे; और अपने सामने ही वह पदभार श्री मोहन जी भागवत को सौपकर मुक्त हो गए. सुदर्शन जी स्वभाव से निर्मल थे; कुछ भोले कह सकते है. अपने मन में जो बात है,उसे प्रकट करने में उन्हें संकोच नहीं होता था. उनका अंत:करण मान लो हथेली पर रखे जैसा सब के लिए खुला था. किसी की भी बातों से वे प्रभावित होते थे. कुछ प्रसार माध्यम इसका अनुचित लाभ भी उठाते थे. लेकिन उन्हें इसकी परवाह नहीं थी. वे जैसे निर्मल थे, वैसे ही निर्भय भी थे. किसी के साथ भी चर्चा करने की उनकी तैयारी रहती थी; और वे मानापमान का भी विचार नहीं करते थे.
अल्पसंख्य आयोग के सामने
एक प्रसंग बताने लायक है. २००१ में संघ ने एक व्यापक जनसंपर्क अभियान चलाया था. मैं उस समय दिल्ली में संघ का प्रवक्ता था. दिल्ली के संघ कार्यकर्ताओं ने कुछ लोगों के साथ मेरी भेट के कार्यक्रम निश्‍चित किए थे. उनमें, वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, सतर्कता आयुक्त एल. विठ्ठल, मुख्य चुनाव आयुक्त एम. एस. गिल, विख्यात पत्रकार तवलीन सिंग, आऊटलुक के संपादक (शायद उनका नाम विनोद मेहता था), और अल्पसंख्य आयोग के उपाध्यक्ष सरदार तरलोचन सिंह (त्रिलोचन सिंह) से हुई भेट मुझे याद है. एक गिल साहब छोड दे, तो अन्य सब से भेट, उन व्यक्तियों के कार्यालय में न होकर, घर पर हुई थी. तरलोचन सिंह ने सिक्ख और हिंदूओं के संबंध में मुझसे बारीकी से चर्चा की. मेरे साथ करीब सब स्थानों पर उस समय के दिल्ली के प्रान्त संघचालक श्री सत्यनारायण बन्सल रहते थे. मेरी बातों से तरलोचन सिंह का समाधान हुआ, ऐसा लगा. उन्होंने पूछा, ‘‘आप जो मेरे घर में बोल रहे है, वह अल्पसंख्य आयोग के सामने बोलोगे?’’ मैंने कहा, ‘‘हमें कोई आपत्ति नहीं.’’ उन्होंने हमें समय दिया. हमने अंग्रेजी में एक लिखित निवेदन तैयार किया और वह आयोग को दिया. कुछ प्रश्‍नोत्तर हुए. बाहर पत्रकारों का हुजूम उमड़ा था. उन्होंने ने भी आडे-टेडे प्रश्‍न पूछने शुरु किए. तरलोचन सिंह बोले, ‘‘इनके निवेदन से मेरा समाधान हुआ है. तुम क्यों अकारण शोर मचा रहे हो?’’
कॅथॉलिकों से संवाद
इस अल्पसंख्य आयोग में जॉन जोसेफ (या जोसेफ जॉन) नाम के ईसाई सदस्य थे. वे केरल के निवासी थे. उन्होंने पूछा, ‘‘आप ईसाई धर्मगुरुओं से बात करोगे?’’ मैंने हॉं कहा. वे इसके लिए प्रयास करते रहे. संघ के झंडेवाला कार्यालय में दो बार मुझसे मिलने आए. रोमन कॅथॉलिक चर्च के प्रमुखों के साथ बात करना निश्‍चित हुआ. उनकी दो शर्तें थी. (१) उनके साथ प्रॉटेस्टंट ईसाई नहीं रहेंगे (२) और उनके बिशप, संघ के प्रवक्ता आदि के साथ बात नहीं करेंगे. संघ के सर्वोच्च नेता के साथ ही बात करेंगे. मैंने सुदर्शन जी से संपर्क किया. वे तैयार हुए. दोनों की सुविधानुसार दिनांक और समय निश्‍चित हुआ. और बैठक के दो-तीन दिन पहले चर्च की ओर से संदेश आया कि, चर्चा के लिए संघ के अधिकारी को हमारे चर्च में आना होगा. चर्च नहीं, और संघ के कार्यालय में भी नहीं तो, किसी तटस्थ स्थान पर यह भेट हो, ऐसा जॉन जोसेफ के साथ हुई बातचित में तय हुआ था. मुझे चर्च की इन शर्तों से क्रोध आया और मैंने कहा, बैठक रद्द हुई ऐसा समझे. सुदर्शन जी केरल में यात्रा पर थे. दूसरे दिन दिल्ली आने वाले थे. मैंने उन्हें सब बात बताई. वे बोले, ‘‘जाएंगे हम उनके चर्च में!’’ मुझे आश्‍चर्य हुआ. मैंने तुरंत जॉन जोसेफ को यह बताया. सुदर्शन जी, मैं और महाराष्ट्र प्रान्त के तत्कालीन कार्यवाह डॉ. श्रीपति शास्त्री, ऐसे हम तीन लोग कॅथॉलिक चर्च में गए. हमारा अच्छा औपचारिक स्वागत हुआ. वहॉं हुई चर्चा के बारे में यहॉं बताना अप्रस्तुत है. वह एक अलग विषय है. सुदर्शन जी चर्चा से डरते नहीं थे, यह मुझे यहॉं अधोरेखित करना है.
बाद में प्रॉटेस्टंट पंथीय धर्म गुरुओं के साथ बैठक हुई. वह नागपुर के संघ कार्यालय के, डॉ. हेडगेवार भवन में. प्रॉटेस्टंटों के चार-पॉंच उपपंथों के ही नाम मुझे पता थे. लेकिन इस बैठक में २७ उपपंथों के २९ प्रतिनिधि आए थे. डेढ घंटे तक खुलकर चर्चा हुई. सब लोगों ने संघ कार्यालय में भोजन भी किया.
मुस्लिम राष्ट्रीय मंच
मुसलमानों के साथ भी उनकी कई बार चर्चा हुई ऐसा मैंने सुना था. लेकिन उस चर्चा में मैं उनके साथ नहीं था. इसी संपर्क से ‘मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ का जन्म हुआ. इस मंच के संगठन का श्रेय संघ के ज्येष्ठ प्रचारक, जम्मू-काश्मीर प्रान्त के भूतपूर्व प्रान्त प्रचारक और संघ के विद्यमान केन्द्रीय कार्यकारी मंडल के सदस्य इंद्रेश कुमार जी को है. सुदर्शन जी ने उन्हें पूरा समर्थन दिया. ‘मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ के जितने भी अखिल भारतीय शिबिर या अभ्यास वर्ग आयोजित होते थे, उनमें सुदर्शन जी उपस्थित रहते थे. वे मुसलमानों से कहते, ‘‘तुम बाहर से हिंदुस्थान में नहीं आए हो. यहीं के हो. केवल तुम्हारी उपासना पद्धति अलग है. तुम्हारे पूर्वज हिंदू ही हैं. उनका अभिमान करे. इस देश को मातृभूमि माने. फिर हिंदूओं के समान आप भी यहॉं के राष्ट्रीय जीवन के अभिन्न घटक हो, ऐसा आपको लगने लगेगा.’’ मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के कार्यक्रमों से मुसलमानों में भी हिंमत आई. देवबंद पीठ ने ‘वंदे मातरम्’ न गाने का फतवा निकाला, तो इस मंच ने अनेक स्थानों पर ‘वंदे मातरम्’ का सामूहिक गायन किया. सब प्रकार के खतरें उठाकर जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में मंच ने तिरंगा फहराया और वंदे मातरम् गाया. इतना ही नहीं, १० लाख मुसलमानों की हस्ताक्षर एक निवेदन राष्ट्रपति को प्रस्तुत कर संपूर्ण देश में गोहत्या बंदी की मांग की. हाल ही में मतलब जून माह में राजस्थान में के तीर्थक्षेत्र पुष्कर में मुस्लिम मंच का तीन दिनों का राष्ट्रीय शिबिर संपन्न हुआ. सुदर्शन जी उस शिबिर में उपस्थित थे. सुदर्शन जी को श्रद्धांजलि अर्पण करने हेतु अनेक मुस्लिम नेता आए थे, उसका यह एक कारण है.
तृतीय सरसंघचालक श्री बाळासाहब देवरस ने संघ में कुछ अच्छी प्रथाएं निर्माण की. उनमें से एक है,रेशीमबाग को सरसंघचालकों की स्मशानभूमि नहीं बनने दिया. उन्होंने बताएनुसार उनका अंतिम संस्कार गंगाबाई घाट पर – मतलब आम जनता के घाट पर, हुआ था. सुदर्शन जी का भी अंतिम संस्कार वही हुआ. वह दिन था रविवार १६ सितंबर २०१२. एक संघसमर्पित जीवन उस दिन समाप्त हुआ. उसे समाप्त हुआ कह सकते है? नही. केवल शरीर समाप्त हुआ. उसे अग्नि ने भस्मसात् किया. लेकिन असंख्य यादें और प्रेरणाप्रसंग पीछे छोडकर…
श्री सुदर्शन जी की स्मृति को मेरा विनम्र अभिवादन और भावपूर्ण श्रद्धांजलि.
– मा. गो. वैद्य

Leave a Reply

Your email address will not be published.

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.