असम के सिल्चर में प्रबुद्ध नागरिकों के साथ हुए वार्तालाप कार्यक्रम में उपस्थित एक सज्जन ने डा. भागवत से प्रश्न पूछा, ‘‘ये जो इंडिया में आजकल जो अट्रॉसिटीज अगेन्स्ट विमेन, रेप्स, मॉलेस्टेशन बढ़ रहे है, इनमें हिंदुओंपर ज्यादा अत्याचार होते दिख रहे है। यह हिन्दुओंका मानोबल नष्ट करने का प्रयास लग रहा है। इसके संदर्भ में आपके क्या विचार हैं?’’
इस प्रश्न के उत्तर में डा. भागवत ने कहा – ‘‘इंडिया में जो यह घट रहा है, बढ़ रहा है वह बहुत खतरनाक और अश्लाघ्य है। लेकिन ये भारत में नहीं है। यह इंडिया में है। जहां इंडिया नहीं है, केवल भारत है वहां ये बातें नही होती, आज भी। जिसने भारत से नाता तोड़ा उसका यह हुआ। क्योंकि यह होने के पीछे अनेक कारण हैं। उसमें एक प्रमुख कारण यह भी है कि हम मानवता को भूल गये, संस्कारों को भूल गये। मानवता, संस्कार पुस्तकों से नहीं आते, परंपरा से आते हैं। लालन-पालन से मिलते हैं, परिवार से मिलते है, परिवार में हम क्या सिखाते है उससे मिलते हैं।
पारिवारिक संस्कारोंकी आवश्यकता
दुनिया की महिला की तरफ देखने की दृष्टि वास्तव में क्या है?दिखता है की, महिला पुरुष के लिए भोगवस्तु है। किन्तु वे ऐसा बोलेंगे नहीं। बोलेंगे तो बवाल हो जाएगा। किन्तु मूल में जा कर आप अध्ययन करेंगे तो महिला उपभोग के लिए है, ऐसा ही व्यवहार रहता है। वह एक स्वतंत्र प्राणी है, इसलिए उसे समानता दी जाती है। किन्तु भाव वही उपभोग वाला होता है। हमारे यहां ऐसा नहीं है। हम कहते हैं कि महिला जगज्जननी है। कन्याभोजन होता है हमारे यहां, क्योंकि वह जगज्जननी है। आज भी उत्तर भारत में कन्याओंको पैर छूने नहीं देते, क्योंकि वह जगज्जननी का रूप है। उल्टे उनके पैर छुए जाते हैं। बड़े-बड़े नेता भी ऐसा करते हैं। उनके सामने कोई नमस्कार करने आए तो मना कर देते हैं,स्वयं झुक कर नमस्कार करते हैं। वो हिंदुत्त्ववादी नहीं है। फिर भी ऐसा करते हैं। क्योंकि यह परिवार के संस्कार हैं। अब यह संस्कार आज के तथाकथित एफ्लुएन्ट परिवार में नहीं हैं। वहां तो करिअरिझम है। पैसा कमाओ, पैसा कमाओ। बाकी किसी चीज से कोई लेना-देना नहीं।
शिक्षा में मानवता के संस्कार होने आवश्यक
शिक्षा से इन संस्कारों को बाहर करने की होड़ चली है। शिक्षा व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाने के लिए होती है। किन्तु आजकल ऐसा नहीं दिखता। शिक्षा मानवत्त्व से देवत्त्व की ओर ले जाने वाली होनी चाहिए। किन्तु ऐसी शिक्षा लगभग शिक्षा संस्थानों से हटा दी गई है। समाज में बड़े लोगों को जो आदर्श रखने चाहिए वो आदर्श आज नहीं रखे जाते। उसको ठीक किया जाना चाहिए। कड़ा कानून बिलकुल होना चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं है। कड़ी सजा दोषियों को होनी ही चाहिए। इसमें कोई दो राय नही है। फांसी की होती है तो हो। विद्वान लोग विचार करे और तय करे। लेकिन केवल कानूनों और सजा के प्रावधानों से नहीं बनती बात। ट्रॅफिक के लिए कानून है मगर क्या स्थिति होती है?जब तक पुलिस होती है, तब तक कानून मानते है। कभी-कभी तो पुलिस के होनेपर भी नहीं मानते।जितना बड़ा शहर और जितने अधिक संपन्न व सुशिक्षित लोग उतने ज्यादा ट्रॅफिक के नियम तोड़े जाते हैं। मैं कोई टीका-टिप्पणी नहीं कर रहा हूं। केवल ऑब्जर्व कर रहा हूं। मैं विमान में बैठा था। पास में एक सज्जन बैठे थे। मोबाइल पर बात कर रहे थे। विमान का दरवाजा बन्द हुआ। किन्तु उनकी बात बन्द नहीं हुई। एअर होस्टेस चार बार बात बन्द करने के लिए कह गई। इनके लगातार फोन काल आ रहे थे। अबकी बार एअरहोस्टेस को आते हुए देख वे भड़क उठे और कहने लगे, ‘२८ इंजिनिअरिंग संस्थानोंमें डिसिप्लिन रखने का जिम्मा मेरे उपर है, और आप मुझे डिसिप्लिन सिखा रही है! ’अब अगर २८ संस्थाओं में डिसिप्लिन रखने की जिम्मेदारी जिस पर है, वह एरोप्लेन में दी जानेवाली सामान्य सूचनाओं का पालन नहीं करता तो उसे हम क्या कहे?इसके विपरीत हमारे वनवासी क्षेत्रों में चले जाएं। जहां अनपढ लोग हैं, गरीब लोग हैं। उनके घर का वातावरण देखो। कितना आनन्द होता है। कोई खतरा नहीं। बहुत सभ्य, बहुत सुशील। (वहां परंपरा, परिवार की शिक्षा कायम है। शहरों में) शिक्षा का मनुष्यत्त्व से नाता हमने तोड़ दिया इसीलिए ऐसा होता है।
बिना संस्कार कानून असरदार नहीं
कानून और व्यवस्था अगर चलनी है, उसके लिए मनुष्य पापभीरू होना है, तो उसके लिए संस्कारोंका होना जरूरी है। अपने संस्कृति के संस्कारों को हमें जल्द जीवित करना पड़ेगा। शिक्षा में कर लेंगे तो परिस्थिति बदल पाएंगे। तब तक के लिए कड़े कानून, कड़ी सजाएं आवश्यक है। दण्ड हमेशा होना चाहिए शासन के हाथों में और वह ठीक दिशा में चलना चाहिए। वह इन सबका प्रोटेस्ट करने वालों पर नहीं चलना चहिए। उसके लिए उनका संस्कार भी आवश्यक है। वो वातावरण से मिलता है। पर वो भी आज नहीं है। हम यह करें तो इस समस्या का समाधान पा सकते हैं।
मातृशक्ति है भोगवस्तु नहीं
हमारी महिलाओं की ओर देखने की दृष्टि वे मातृशक्ति है यही है। वे भोगवस्तु नहीं,देवी हैं। प्रकृति की निर्मात्री है। हम सब लोगों की चेतना की प्रेरक शक्ति है और हमारे लिए सबकुछ देनेवाली माता है। यह दृष्टि जब तक हम सबमें लाते नहीं तब तक ये बातें रुकेगी नहीं। केवल कानून बनाने से काम नहीं चलेगा। वो होना चाहिए किन्तु उसके साथ संस्कार भी होने चाहिए।’’
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